सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
अब आज से विरजन की यह दशा हो गई कि जब देखिए लेखनी लिए हुए पन्ने काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उसे पहले ही कुछ प्रयोजन न था, लिखने का आना सोने में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती पिता हर्ष से फूला न समाता, नित्य नवीन पुस्तकें लाता कि विरजन सयानी होगी, तो पढ़ेगी। यदि कभी वह अपने पांव धो लेती, या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती तो माता महरियों पर बहुत कुद्ध होती– आंखें फूट गयी हैं। चर्बी छा गई है। वह अपने हाथ से पानी उड़ेल रही है और तुम खड़ी मुंह ताकती हो।
इसी प्रकार काल बीतता चला गया, विरजन का बारहवां वर्ष पूर्ण हुआ, परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल्हे के सामने बैठने का कभी अवसर ही न आया। सुवामा ने एक दिन उसकी माता से कहा– बहिन विरजन सयानी हुई, क्या कुछ गुन-ढंग न सिखाओगी?
सुशीला– क्या कहूं, जी तो चाहता है कि लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हूं।
सुवामा– क्या सोचकर रुक जाती हो?
सुशीला– कुछ नहीं आलस आ जाता है।
सुवामा– तो यह काम मुझे सौंप दो। भोजन बनाना स्त्रियों के लिए सबसे आवश्यक बात है।
सुशीला– अभी चूल्हे के सामने उससे बैठा न जाएगा।
सुवामा– काम करने से ही आता है।
सुशीला– (झेंपते हुए) फूल से गाल कुम्हला जायेंगे।
सुवामा– (हंसकर) बिना फूल के मुरझाये कहीं फल लगते हैं?
दूसरे दिन से विरजन भोजन बनाने लगी। पहले दस-पांच दिन उसे चूल्हे के सामने बैठने में बड़ा कष्ट हुआ। आग न जलती, फूंकने लगती तो नेत्रों से जल बहता। वे बूटी की भांति लाल हो जाते। चिनगारियों से कई रेशमी साड़ियां सत्यानाथ हो गयीं। हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमशः सारे क्लेश दूर हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला स्त्री थी कि कभी रुष्ट न होती, प्रतिदिन उसे पुचकारकर काम में लगाए रहती।
अभी विरजन को भोजन बनाते दो मास से अधिक न हुए होंगे कि एक दिन उसने प्रताप से कहा– लल्लू, मुझे भोजन बनाना आ गया।
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