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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(६) डिप्टी श्यामाचरण

डिप्टी श्यामाचरण की धाक सारे नगर में छायी हुई थी। नगर में कोई ऐसा हाकिम न था जिसकी लोग इतनी प्रतिष्ठा करते हों। इसका कारण कुछ तो यह कि वे स्वभाव के मिलनसार और सहनशील थे और कुछ यह कि रिश्वत से उन्हें बड़ी घृणा थी। न्याय-विचार ऐसी सूक्ष्मता से करते थे कि दस-बारह वर्ष के भीतर कदाचित उनके दो-ही चार फैसलों की अपील हुई होगी। अंग्रेजी का एक अक्षर न जानते थे, परन्तु बैरस्टिरों और वकीलों को भी उनकी नैतिक पहुंच और सूक्ष्मदर्शिता पर आश्चर्य होता था। स्वभाव में स्वाधीनता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के अतिरिक्त किसी ने उन्हें और कहीं आते-जाते नहीं देखा। मुंशी शालिग्राम जब तक जीवित थे,

या यों कहिए कि वर्तमान थे, तब तक कभी-कभी चित्तविनोदार्थ उनके यहां चले जाते थे। जबसे वे लुप्त हो गये, डिप्टी साहब ने घर छोड़कर हिलने की शपथ कर ली। कई वर्ष हुए एक बार कलेक्टर साहब को सलाम करने गये थे खानसामा ने कहा– साहब स्नान कर रहे हैं दो घंटे तक बरामदे में एक मोढ़े पर बैठे प्रतीक्षा कर रहे। तदनन्तर साहब बहादुर हाथ में एक टेनिस बैट लिये हुए निकले और बोले– बाबू साहब, हमको खेद है कि आपको हामारी बाट देखनी पड़ी। मुझे आज अवकाश नहीं है। क्लब-घर जाना है। आप फिर कभी आवें।

यह सुनकर उन्होंने साहब बहादुर को सलाम किया और इतनी-सी बात पर फिर किसी अंग्रेज की भेंट को न गये। वंश, प्रतिष्ठा और आत्म-गौरव पर उन्हें बड़ा अभिमान था। वे बड़े ही रसिक पुरुष थे। उनकी बातें हास्य से पूर्ण होती थीं। संध्या के समय जब वे कतिपय विशिष्ट मित्रों के साथ द्वारांगण में बैठते, तो उनके उच्च हास्य की गूंजती हुई प्रतिध्वनि बाटिका में सुनायी देती थी। नौकरों-चाकरों से वे बहुत सरल व्यवहार रखते थे, यहां तक कि उनके संग अलाव के बैठने में भी उनको कुछ संकोच न था। परन्तु उनकी धाक ऐसी छाई हुई थी कि उनकी इस सज्जनता से किसी को अनुचित लाभ उठाने का साहस न होता था। चाल-ढाल सामान्य रखते थे। कोट-पतलून से उन्हें घृणा थी। बटनदार ऊंची अचकन, उस पर एक रेशमी काम का अबा, काला शिमला, ढीला पाजामा और दिल्लीवाला नोंकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके दुहरे शरीर, गुलाबी चेहरे और मध्यम डील पर जितनी यह पोशाक शोभा देती थी, उनकी कोट-पतलून से सम्भव न थी। यद्यपि उनकी धाक सारे नगर-भर में फैली हुई थी, तथापि अपने घर के मण्डलान्तगर्त उनकी एक न चलती थी। यहां उनकी सुयोग्य अर्द्धांगिनी का साम्राज्य था। वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूर्वक शासन करती थी। कई वर्ष व्यतीत हुए डिप्टी साहब ने उनकी इच्छा के विरुद्व एक महराजिन नौकर रख ली थी। महराजिन कुछ रंगीली थी। प्रेमवती अपने पति की इस अनुचित कृति पर ऐसी रुष्ट हुई कि कई सप्ताह तक कोपभवन में बैठी रही। निदान विवश होकर साहब ने महराजिन को विदा कर दिया। तब से उन्हें फिर कभी गृहस्थी के व्यवहार में हस्तक्षेप करने का साहस न हुआ।

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