सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
कमला– निकली न झूठी बात। वही तो मैं भी कहती हूं कि अभी ग्यारह-बारह वर्ष की छोकरी, उसने इनसे क्या बातें की होंगी? परन्तु नहीं, अपना ही हठ किये जाएं। पुरुष बड़े प्रलापी होते हैं। मैंने यह कहा, मैंने वह कहा। मेरा तो इन बातों से हृदय सुलगता है। न जाने उन्हें अपने ऊपर झूठा दोष लगाने में क्या स्वाद मिलता है । मनुष्य जो बुरा-भला करता है, उस पर परदा डालता है। यह लोग करेंगे तो थोड़ा, मिथ्या प्रलाप का आल्हा गाते फिरेंगे ज्यादा। मैं तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य नहीं मानती।
इतने में गुलबिया ने आकर कहा– तुम तो यहाँ ठाढी बतलात हो। और तुम्हार सखी तुमका आंगन में बुलौती हैं।
सेवती– देखो भाभी, अब देर न करो। गुलबिया, तनिक इनकी पिटारी से कपड़े तो निकाल ले।
कमला चन्द्रा का श्रृंगार करने लगी। सेवती सहेलियों के पास आयी। रुक्मिणी बोली– वाह बहिन, खूब। वहाँ जाकर बैठ रही। तुम्हारी दीवारों से बोलें क्या?
सेवती– कमला बहिन चली गयीं। उनसे बातचीत होने लगी। दोनों आ रही हैं।
रुक्मिणी– लड़कोरी है न?
सेवती– हाँ, तीन लड़के हैं।
रामदेई– मगर काठी बहुत अच्छी है।
चन्द्रकुंवर– मुझे उनकी नाक बहुत सुन्दर लगती है, जी चाहता है छीन लूं।
सीता– दोनों बहिनें एक-से-एक बढ़कर है।
सेवती– सीता को ईश्वर ने वर अच्छा दिया है, इसने सोने की गौर पूजी थी।
रुक्मिणी– (जलकर) गोरे चमड़े से कुछ नहीं होता।
सीता– तुम्हें काला ही भाता होगा।
सेवती– मुझे काला वर मिलता तो विष खा लेती।
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