सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
रुक्मिणी– यों कहने को जो चाहे कह लो, परन्तु वास्तव में सुख काले ही वर से मिलता है।
सेवती– सुख नहीं धूल मिलती है। ग्रहण-सा आकर लिपट जाता होगा।
रुक्मिणी– यही तो तुम्हारा लड़कपन है। तुम जानती नहीं सुन्दर पुरुष अपने ही बनाव– सिंगार में लगा रहता है। उसे अपने आगे स्त्री का कुछ ध्यान ही नहीं रहता। यदि स्त्री परम-रूपवती हो तो कुशल है। नहीं तो थोड़े ही दिनों में वह समझता है कि मैं ऐसी दूसरी स्त्रियों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता हूं। उससे भागने लगता है। और कुरूप पुरुष सुन्दर स्त्री पा जाता है तो समझता है कि मुझे हीरे की खान मिल गयी। बेचारा काला अपने रूप की कमी को प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है कि मैं तनिक भी इससे खट्टा पड़ा तो यह मुझसे घृणा करने लगेगी।
चन्द्रकुंवर– दूल्हा सबसे अच्छा वह, जो मुंह से बात निकलते ही पूरी करे।
रामदेई– तुम अपनी बात न चलाओ। तुम्हें तो अच्छे-अच्छे गहनों से प्रयोजन है– दूल्हा कैसा ही हो।
सीता– न जाने कोई अपने पुरुष से किसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या संकोच नहीं होता?
रुक्मिणी– तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे?
सीता– मेरी तो उन्हें देखने से ही तृप्ति हो जाती है। वस्त्राभूषणों पर जी नहीं चलता।
इतने में एक और सुन्दरी आ पहुंची, गहने से गोंदनी की भांति लदी हुई। बढ़िया जूती पहने, सुगंध में बसी। आँखों से चपलता बरस रही थी।
रामदेई– आओ रानी, आओ, तुम्हारी ही कमी थी।
रानी– क्या करूं, निगोड़ी नाइन से किसी प्रकार पीछा नहीं छूटता था। कुसुम की माँ आई तब जाके जूड़ा बाँधा।
सीता– तुम्हारी जाकिट पर बलिहारी है।
रानी– इसकी कथा मत पूछो। कपड़ा दिये एक मास हुआ। दस-बारह बार दर्जी सीकर लाया। पर कभी आस्तीन ढीली कर दी, कभी सीअन बिगाड़ दी, कभी चुनाव बिगाड़ दिया। अभी चलते-चलते दे गया है।
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