सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
यही बातें हो रही थीं कि माधवी चिल्लाई हुई आयी– ‘भैया आये, भैया आए। उनके संग जीजा भी आए हैं, ओहो! ओहो!
रानी– राधाचरण आये क्या?
सेवती– हाँ। चलूं तनिक भाभी को सन्देश दे आऊं! क्यों री! कहां बैठे हैं?
माधवी– उसी बड़े कमरे में। जीजा पगड़ी बांधे हैं, भैया कोट पहिने हैं, मुझे जीजा ने रुपया दिया। यह कहकर उसने मुट्ठी खोलकर दिखायी।
रानी– सितो! अब मुंह मीठा कराओ।
सेवती– क्या मैंने कोई मनौती की थी?
यह कहती हुई सेवती चन्द्रा के कमरे में जाकर बोली– लो भाभी। तुम्हारा सगुन ठीक हुआ।
चन्द्रा– क्या आ गए? तनिक जाकर भीतर बुला लो।
सेवती– हां मर्दाने में चली जाऊं। तुम्हारे बहनाई जी भी तो पधारे हैं।
चन्द्रा– बाहर बैठे क्या कर रहे हैं? किसी को भेजकर बुला लेती, नहीं तो दूसरों से बातें करने लगेंगे।
अचानक खडाऊं का शब्द सुनायी दिया और राधाचरण आते दिखायी दिये। आयु चौबीस-पच्चीस बरस से अधिक न थी। बड़े ही हँसमुख, गौर वर्ण, अंग्रेजी काट के बाल, फ्रेंच काट की दाढ़ी, खड़ी मूंछें, बवंडर की लपटें आ रही थीं। एक पतला रेशमी कुर्ता पहने हुए थे। आकर पलंग पर बैठ गए और सेवती से बोले– क्या सित्तो! एक सप्ताह से चिट्ठी नहीं भेजी?
सेवती– मैंने सोचा, अब तो आ ही रहे हो, क्यों चिट्ठी भेजूं! यह कहकर वहां से हट गई।
चन्द्रा ने घूंघट उठाकर कहा– वहाँ जाकर भूल जाते हो!
राधाचरण– (हृदय से लगाकर) तभी तो सैकडों कोस से चला आ रहा हूँ।
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