सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
मास्टर ने खोज की तो आप ही के फेंटे में से घड़ी मिली। फिर क्या था? बड़े मास्टर के यहाँ रिपोर्ट हुई। वह सुनते ही झल्ला गये और कोई तीन दर्जन बेंतें लगायीं, सड़ासड़। सारा स्कूल यह कौतूहल देख रहा था। जब तक बेंतें पड़ा की, महाशय चिल्लाया किए, परन्तु बाहर निकलते ही खिलखिलाने लगे और मूंछों पर ताव देने लगे।...चाची! नहीं सुना? आज लड़कों ने ठीक स्कूल के फाटक पर कमलाचरण को पीटा। मारते-मारते बेसुध कर दिया! सुशीला ये बातें सुनती और सुन-सुनकर कुढ़ती। हां! प्रताप ऐसी कोई बात विरजन के सामने न करता। यदि वह घर में बैठी भी होती तो जब तक चली न जाती, यह चर्चा न छेड़ता। वह चाहता था कि मेरी बात से इसे कुछ दुःख न हो।
समय-समय पर मुंशी संजीवनलाल ने भी कई बार प्रताप की कथाओं की पुष्टि की। कभी कमला हाट में बुलबुल लड़ाते मिल जाता, कभी गुण्डों के संग सिगरेट पीते, पान चबाते, बेढंगेपन से घूमता हुआ दिखायी देता। मुंशीजी जब जामाता की यह दशा देखते तो घर आते ही स्त्री पर क्रोध निकालते– यह सब तुम्हारी ही करतूत है। तुम्हीं ने कहा था घर-वर दोनों अच्छे हैं, तुम्हीं रीझी हुई थीं। उन्हें उस क्षण यह विचार न होता कि जो दोषारोपण सुशीला पर है, कम-से-कम मुझ पर भी उतना ही है। वह बेचारी तो घर में बन्द रहती थी, उसे क्या ज्ञात था कि लड़का कैसा है। वह सामुद्रिक विद्या थोड़ी ही पढ़ी थी? उसके माता-पिता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर सहमत हो गयी। पर मुंशीजी ने तो अकर्मण्यता और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यपि उन्हें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुंशीजी के अगणित बान्धव इसी भारतवर्ष में अब भी विद्यमान हैं जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करके कुएं में ढकेल दिया करते हैं।
सुशीला के लिए विरजन से प्रिय जगत में अन्य वस्तु न थी। विरजन उसका प्राण थी, विरजन उसका धर्म थी और विरजन ही उसका सत्य थी। वही उसकी प्राणाधार थी, वही उसके नयनों की ज्योति और हृदय का उत्साह थी, उसकी सर्वौच्च सांसारिक अभिलाषा यह थी कि मेरी प्यारी विरजन अच्छे घर जाये। उसके सास-ससुर, देवी-देवता हों। उसके पति शिष्टता की मूर्ति और श्रीरामचंद्र की भांति सुशील हो। उस पर कष्ट की छाया भी न पड़े। उसने मर-मरकर बड़ी मिन्नतों से यह पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कि इन रसीले नयनों वाली, अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पर्यन्त आंखों से अदृश्य न होने दूंगी। अपने जामाता को भी यहीं बुलाकर अपने घर रखूंगी। जामाता मुझे माता कहेगा, मैं उसे लड़का समझूँगी। जिस हृदय में ऐसे मनोरथ हों, उस पर ऐसी दारुण और हृदयविदारणी बातों का जो कुछ प्रभाव पड़ेगा, प्रकट है।
हा हन्त!! दीना सुशीला के सारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये। उसकी सारी आशाओं पर ओस पड़ गयी। क्या सोचती थी और क्या हो गया। अपने मन को बार-बार समझाती कि अभी क्या है, जब कमला सयाना हो जाएगा तो सब बुराइयां स्वयं त्याग देगा। पर एक निन्दा का घाव भरने नहीं पाता था कि फिर कोई नवीन घटना सुनने में आ जाती। इसी प्रकार आघात पड़ते गए। हाय! नहीं मालूम विरजन के भाग्य में क्या बदा है? क्या यह गुन की मूर्ति, मेरे घर की दीप्ति, मेरे शरीर का प्राण इसी दुष्कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत करेगी? क्या मेरी श्यामा इसी गिद्व के पाले पड़ेगी? यह सोचकर सुशीला रोने लगती और घंटों रोती है। पहिले विरजन को कभी डांट-डपट भी दिया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न कहती। उसका मुंह देखते ही उसे याद आ जाती। एक क्षण के लिए भी उसे सामने से अदृश्य न होने देगी। यदि जरा देर के लिए वह सुवामा के घर चली जाती, तो स्वयं पहुंच जाती। उसे ऐसा प्रतीत होता मानो कोई उसे छीनकर ले भागता है। जिस प्रकार बधिक की छुरी के तले अपने बछड़े को देखकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता है, उसी प्रकार विरजन के दुख का ध्यान करके सुशीला की आंखों में संसार सूना जान पड़ता था। इन दिनों विरजन को पल-भर के लिए नेत्रों से दूर करते उसे वह कष्ट और व्याकुलता होती, थी जो चिड़िया को घोंसले से बच्चे के खो जाने पर होती है।
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