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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


सुशीला एक तो यों ही जीर्ण रोगिणी थी। उस पर भविष्य की असाध्य चिन्ता और जलन ने उसे और भी घुला डाला। निन्दाओं में कलेजा चलनी कर डाला। छः मास भी बीतने न पाए थे कि क्षयरोग के चिह्न दिखायी देने लगे। प्रथम तो कुछ दिनों तक साहस करके अपने दुःख को छिपाती रही, परन्तु कब तक? रोग बढ़ने लगा और वह शक्तिहीन हो गई। चारपाई से उठना कठिन हो गया। वैद्य और डॉक्टर औषध करने लगे। विरजन और सुवामा दोनों रात-दिन उसके पास बैठी रहती। विरजन एक पल के लिए उसकी दृष्टि से ओझल न होने पाती। उसे अपने निकट न देखकर सुशीला बेसुध-सी हो जाती और फूट-फूटकर रोने लगती। मुंशी संजीवनलाल पहिले तो धैर्य के साथ दवा करते रहे, पर जब देखा कि किसी उपाय से कुछ लाभ नहीं होता और बीमारी की दशा दिन-दिन निकृष्ट होती जाती है तो अंत में उन्होंने भी निराश हो उद्योग और साहस कम कर दिया। आज से कई साल पहले जब सुवामा बीमार पड़ी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सूश्रूषा में पूर्ण परिश्रम किया था, अब सुवामा की बारी आई। उसने पड़ोसी और भगिनी के धर्म का पालन भली-भांति किया। रुग्ण-सेवा में अपने गृहकार्य को भूल-सी गई। दो-दो तीन-तीन दिन तक प्रताप से बोलने की नौबत न आई। बहुधा वह बिना भोजन किये ही स्कूल चला जाता। परन्तु कभी कोई अप्रिय शब्द मुख से न निकालता। सुशीला की रुग्णावस्था ने अब उसकी द्वेषाग्नि को बहुत कम कर दिया था। द्वेष की अग्नि द्वेष्टा की उन्नति और दुर्दशा के साथ-साथ तीव्र और प्रज्जवलित होती जाती है और उसी समय शान्त होती है जब द्वेष्टा के जीवन का दीपक बुझ जाता है।

जिस दिन वृजरानी को ज्ञात हो जाता कि आज प्रताप बिना भोजन किये स्कूल जा रहा है, उस दिन वह काम छोड़कर उसके घर दौड़ जाती और भोजन करने के लिए आग्रह करती, पर प्रताप उससे बात न करता, उसे रोता छोड़ बाहर चला जाता। निस्संदेह वह विरजन को पूर्णतःनिर्दोष समझता था, परन्तु एक ऐसे सम्बन्ध को, जो वर्ष छः मास में टूट जाने वाला हो, वह पहले ही से तोड़ देना चाहता था। एकान्त में बैठकर वह आप-ही-आप फूट-फूटकर रोता, परन्तु प्रेम के उद्वेग को अधिकार से बाहर न होने देता।

एक दिन वह स्कूल से आकर अपने कमरे में बैठा हुआ था कि विरजन आई, उसके कपोल अश्रु से भीगे हुए थे और वह लंबी-लंबी सिसकियां ले रही थी। उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी निराशा छाई हुई थी और उसकी दृष्टि कुछ ऐसी करुणोत्पादक थी कि प्रताप से न रहा गया! सजल नयन होकर बोला– ‘क्यों विरजन! रो क्यों रही हो? विरजन ने कुछ उतर न दिया, वरन और बिलख-बिलखकर रोने लगी। प्रताप का गाम्भीर्य जाता रहा। वह निस्संकोच होकर उठा और विरजन की आंखों से आंसू पोंछने लगा। विरजन ने स्वर संभालकर कहा– लल्लू अब माताजी न जीयेंगी, मैं क्या करूं? यह कहते-कहते फिर सिसकियां उभरने लगी।

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