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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(१०) सुशीला की मृत्यु

तीन दिन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न रही। तीनों दिन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देते रहे। वह तनिक देर के लिए भी वहां से किसी काम के लिए चले जाते, तो वह व्याकुल होने लगती और रो-रोकर कहने लगती, मुझे छोड़कर कहीं चले गए। उनको नेत्रों के सम्मुख देखकर भी उसे संतोष न होता। रह-रहकर उतावलेपन से उनका हाथ पकड़ लेती और निराश भाव से कहती...मुझे छोड़कर कहीं चले तो नहीं जाओगे? मुंशीजी यद्यपि बड़े दृढ-चित्त मनुष्य थे, तथापि ऐसी बातें सुनकर आर्द्र नेत्र हो जाते।

थोड़ी-थोड़ी देर में सुशीला को मूर्छा-सी आ जाती। फिर चौंकती तो इधर-उधर भौंचक्की-सी देखने लगती। वे कहां गये? क्या छोड़कर चले गये? किसी-किसी बार मूर्छा का इतना प्रकोप होता कि मुन्शीजी बार-बार कहते...मैं यही हूं, घबराओ नहीं। पर उसे विश्वास न आता। उन्हीं की ओर ताकती और पूछती कि...कहां हैं? यहां तो नहीं है। कहां चले गए? थोड़ी देर में जब चेत हो जाता तो चुप रह जाती और रोने लगती। तीनों दिन उसने विरजन, सुवामा, प्रताप एक की भी सुधि न की। वे सब-के-सब हर घड़ी उसी के पास खड़े रहते, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो वह मुंशीजी के अतिरिक्त और किसी को पहचानती ही नहीं है। जब विरजन बैचैन हो जाती और गले में हाथ डालकर रोने लगती, तो वह तनिक आंखें खोल देती और पूछती...‘कौन है, विरजन? बस और कुछ न पूछती। जैसे, सूम के हृदय में मरते समय अपने गड़े हुए धन के सिवाय और किसी बात का ध्यान नहीं रहता उसी प्रकार हिन्दू स्त्री अपने अन्त समय में पति के अतिरिक्त और किसी का ध्यान नहीं कर सकती।

कभी-कभी सुशीला चौंक पड़ती और विस्मित होकर पूछती–  ‘अरे। यह कौन खड़ा है? ना मैं न जाने दूंगी। यह कहकर मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लेती। एक पल में जब होश आ जाता, तो लज्जित होकर कहती’– मैं सपना देख रही थी, जैसे कोई तुम्हें लिये जा रहा था। देखो, तुम्हें हमारी सौंह है, कहीं जाना नहीं। न जाने कहां ले जाएगा, फिर तुम्हें कैसे देखूंगी? मुन्शीजी का कलेजा मसोसने लगता। उसकी ओर अति करुणा भरी स्नेह-दृष्टि डालकर बोलते–  ‘नहीं, मैं न जाऊँगा। तुम्हें छोड़कर कहां जाउंगा? सुवामा उसकी दशा देखती और रोती कि अब यह दीपक बुझना ही चाहता है। अवस्था ने उसकी लज्जा दूर कर दी थी। मुन्शीजी के सम्मुख घंटों मुंह खोले खड़ी रहती।

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