सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
चौथे दिन सुशीला की दशा संभल गयी। मुन्शीजी को विश्वास हो गया, बस यह अन्तिम समय है। दीपक बुझने के पहले भभक उठता है। प्रातःकाल जब मुंह धोकर वह घर में आए, तो सुशीला ने संकेत द्वारा उन्हें अपने पास बुलाया और कहा...‘मुझे अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दो’’। आज वह सचेत थी। उसने विरजन, प्रताप, सुवामा सबको भली-भांति पहिचाना। वह विरजन को बड़ी देर तक छाती से लगाये रोती रही। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली– ‘बहिन। तनिक हमको उठाकर बिठा दो, स्वामी जी के चरण छूं लूं। फिर न जाने कब इन चरणों के दर्शन होंगे। सुवामा ने रोते हुए अपने हाथों से सहारा देकर उसे तनिक उठा दिया। प्रताप और विरजन सामने खड़े थे। सुशीला ने मुन्शीजी से कहा– ‘मेरे समीप आ जाओ’। मुन्शीजी प्रेम और करुणा से विह्वल होकर उसके गले से लिपट गये और गद्गद स्वर में बोले– ‘घबराओ नहीं, ईश्वर चाहेगा तो तुम अच्छी हो जाओगी’। सुशीला ने निराश भाव से कहा, ‘हाँ’ आज अच्छी हो जाऊँगी। जरा अपना पैर बढ़ा दो। मैं माथे लगा लूं। मुन्शीजी हिचकिचाते रहे। सुवामा रोते हुए बोली– ‘पैर बढ़ा दीजिए, इनकी इच्छा पूरी हो जाय। तब मुंशीजी ने चरण बढ़ा दिये। सुशीला ने उन्हें दोनों हाथों से पकड़ कर कई बार चूमा फिर उन पर हाथ रखकर रोने लगी। थोड़े ही देर में दोनों चरण उष्ण जल कणों से भीग गये। पतिव्रता स्त्री ने प्रेम के मोती पति के चरणों पर निछावर कर दिये। जब आवाज संभली तो उसने विरजन का एक हाथ थाम कर मुन्शीजी के हाथ में दे दिया और अति मन्द स्वर में कहा– स्वामीजी! आपके संग बहुत दिन रही और जीवन का परम सुख भोगा। अब प्रेम का नाता टूटता है। अब मैं पल-भर की और अतिथि हूं। प्यारी विरजन को तुम्हें सौंप जाती हूं। मेरा यही चिह्न है। इस पर सदा दया दृष्टि रखना। मेरे भाग्य में प्यारी पुत्री का सुख देखना नहीं बदा था। इसे मैंने कभी कोई कटु वचन नहीं कहा, कभी कठोर दृष्टि से नहीं देखा। यह मेरे जीवन का फल है। ईश्वर के लिए तुम इसकी ओर से बेसुध न हो जाना। यह कहते-कहते हिचकियां बंध गयीं और मूर्छा-सी आ गयी।
जब कुछ अवकाश हुआ तो उसने सुवामा के सम्मुख हाथ जोड़े और रोकर कहा– ‘बहिन’। विरजन तुम्हारे समर्पण है। तुम्हीं उसकी माता हो। लल्लू। प्यारे। ईश्वर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी विरजन को भूलना मत। यह तुम्हारी दीना और मातृहीना बहिन है। तुममें उसके प्राण बसते हैं। उसे रुलाना मत, उसे कुढ़ाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत कहना। उससे कभी न रूठना। उसकी ओर से बेसुध न होना, नहीं तो वह रो-रोकर प्राण दे देगी। उसके भाग्य में न जाने क्या बदा है, पर तुम उसे अपनी सगी बहिन समझकर सदा ढांढस देते रहना। मैं थोड़ी देर में तुम लोगों को छोड़कर चली जाऊंगी, पर तुम्हें मेरी सौंह, उसकी ओर से मन मोटा न करना तुम्हीं उसका बेड़ा पार लगाओगे। मेरे मन में बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं थीं, मेरी लालसा थी कि तुम्हारा ब्याह करूंगी, तुम्हारे बच्चों को खिलाउंगी। पर भाग्य में कुछ और ही बदा था।
यह कहते-कहते वह फिर अचेत हो गयी। सारा घर रो रहा था। महरियां, महराजिनें सब उसकी प्रशंसा कर रही थी कि स्त्री नहीं, देवी थी।
रधिया– इतने दिन टहल करते हुए, पर कभी कठोर वचन न कहा।
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