सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
महराजिन-हमको बेटी की भांति मानती थीं। भोजन कैसा ही बना दूं पर कभी नाराज नहीं हुई। जब बातें करतीं, मुस्कुरा के। महाराज जब आते तो उन्हें जरूर सीधा दिलवाती थीं।
सब इसी प्रकार की बातें कर रहे थे। दोपहर का समय हुआ। महराजिन ने भोजन बनाया, परन्तु खाता कौन? बहुत हठ करने पर मुंशीजी गए और नाम करके चले आए। प्रताप चौके पर गया ही नहीं। विरजन और सुवामा को भूख कहां? सुशीला कभी विरजन को प्यार करती, कभी सुवामा को गले लगाती, कभी प्रताप को चूमती और कभी अपनी बीती कह-कहकर रोती। तीसरे पहर उसने सब नौकरों को बुलाया और उनसे अपराध क्षमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से कहा– बहिन प्यास बहुत लगती है। उनसे कह दो अपने हाथ से थोड़ा-सा पानी पिला दें। मुंशीजी पानी लाये। सुशीला ने कठिनता से एक घूंट पानी कण्ठ से नीचे उतारा और ऐसा प्रतीत हुआ, मानो किसी ने उसे अमृत पिला दिया हो। उसका मुख उज्जवल हो गया आंखों में जल भर आया। पति के गले में हाथ डालकर बोली– मै ऐसी भाग्यशालिनी हूं कि तुम्हारी गोद में मरती हूं। यह कहकर वह चुप हो गयी, मानो कोई बात कहना ही चाहती है, पर संकोच से नहीं कहती। थोड़ी देर पश्चात् उसने फिर मुंशीजी का हाथ पकड़ लिया और कहा– ‘यदि तुमसे कुछ मांगू, तो दोगे?
मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा– तुम्हारे लिए मांगने की आवश्यकता है? निःसंकोच कहो।
सुशीला– तुम मेरी बात कभी नहीं टालते थे।
मुन्शीजी– मरते दम तक कभी न टालूंगा।
सुशीला– डर लगता है, कहीं न मानो तो...।
मुन्शीजी– तुम्हारी बात और मैं न मानूं?
सुशीला– मैं तुमको न छोडूंगी। एक बात बतला दो...सिल्ली (सुशीला) मर जाएगी, तो उसे भूल जाओगे?
मुन्शीजी– ऐसी बातें न कहो, देखो विरजन रोती है।
सुशीला– बतलाओ, मुझे भूलोगे तो नहीं?
मुन्शीजी– कभी नहीं।
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