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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(११) विरजन की विदा

राधाचरण रुड़की कॉलेज से निकलते ही मुरादाबाद के इंजीनियर नियुक्त हुए और चन्द्रा उनके संग मुरादाबाद को चली। प्रेमवती ने बहुत रोकना चाहा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता है? सेवती कब की ससुराल आ चुकी थी। यहां घर में अकेली प्रेमवती रह गई। उसके सिर घर का काम-काज पड़ा। निदान यह राय हुई कि विरजन के गौने का संदेशा भेजा जाय। डिप्टी साहब सहमत न थे, परन्तु घर के कामों में प्रेमवती ही की बात चलती थी।

संजीवनलाल ने संदेशा स्वीकार कर लिया। कुछ दिनों से वे तीर्थयात्रा का विचार कर रहे थे। उन्होंने क्रम-क्रम से सांसारिक संबंध त्याग कर दिये थे। दिन-भर घर में आसन मारे भगवद्गीता और योगवाशिष्ठ आदि ज्ञान-सम्बन्धी पुस्तकों का अध्ययन किया करते थे। संध्या होते ही गंगा-स्नान को चले जाते। वहां से रात्रि गये लौटते और थोड़ा-सा भोजन करके सो जाते। प्रायः प्रतापचन्द्र भी उनके संग गंगा-स्नान को जाता। यद्यपि उसकी आयु सोलह वर्ष की भी न थी, पर कुछ तो निज स्वभाव, कुछ पैतृक संस्कार और कुछ संगति के प्रभाव से उसे अभी से वैज्ञानिक विषयों पर मनन और विचार करने में बड़ा आनन्द प्राप्त होता था। ज्ञान तथा ईश्वर सम्बन्धी बातें सुनते-सुनते उसकी प्रवृति भी भक्ति की ओर हो चली थी, और किसी-किसी समय मुन्शीजी से एक-एक सूक्ष्म विषयों पर विवाद करता कि वे विस्मित हो जाते। वृजरानी पर सुवामा की शिक्षा का उससे भी गहरा प्रभाव पड़ा था जितना कि प्रतापचन्द्र पर मुन्शीजी की संगति और शिक्षा का। उसका पन्द्रहंवा वर्ष था। इस आयु में नयी उमंगें तरंगित होती हैं और चितवन में सरलता-चंचलता की तरह मनोहर रसीलापन बरसने लगता है। परन्तु वृजरानी अभी वही भोली-भाली बालिका थी। उसके मुख पर हृदय के पवित्र भाव झलकते थे और वार्तालाप में मनोहारिणी मधुरता उत्पन्न हो गयी थी। प्रातःकाल उठती और सबसे प्रथम मुन्शीजी का कमरा साफ करके, उनके पूजा-पाठ की सामग्री यथोचित रीति से रख देती। फिर रसोई घर के धन्धे में लग जाती। दोपहर का समय उसके लिखने-पढ़ने का था। सुवामा पर उसका जितना प्रेम और जितनी श्रद्वा थी, उतनी अपनी माता पर भी न रही होगी। उसकी इच्छा विरजन के लिए आज्ञा से कम न थी।

सुवामा की तो सम्मति थी कि अभी विदाई न की जाय! पर मुन्शीजी के हठ से विदाई की तैयारियां होने लगीं। ज्यों-ज्यों वह विपत्ति की घड़ी निकट आती, विरजन की व्याकुलता बढ़ती जाती थी। रात-दिन रोया करती। कभी पिता के चरणों में पड़ती और कभी सुवामा के पदों में लिपट जाती। पर विवाहिता कन्या पराये घर की हो जाती है, उस पर किसी का क्या अधिकार।

प्रतापचन्द्र और विरजन कितने ही दिनों तक भाई-बहन की भांति एक साथ रहे। पर अब विरजन की आंखें उसे देखते ही नीचे को झुक जाती थीं। प्रताप की भी यही दशा थी। घर में बहुत कम आता था। आवश्यकतावश आया, तो इस प्रकार दृष्टि नीचे किये हुए और सिमटे हुए, मानो दुलहिन है। उसकी दृष्टि में वह प्रेम-रहस्य छिपा हुआ था, जिसे वह किसी मनुष्य...यहां तक कि विरजन पर भी प्रकट नहीं करना चाहता था।

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