सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
एक दिन सन्ध्या का समय था। विदाई को केवल तीन दिन रह गये थे। प्रताप किसी काम से भीतर गया और अपने घर में लैम्प जलाने लगा कि विरजन आई। उसका आंचल आंसुओं से भीगा हुआ था। उसने आज दो वर्ष के अनन्तर प्रताप की ओर सजल नेत्रों से देखा और कहा– लल्लू। मुझसे कैसे सहा जाएगा?
प्रताप के नेत्रों में आंसू न आए। उसका स्वर भारी न हुआ। उसने सुदृढ़ भाव से कहा– ईश्वर तुम्हें धैर्य धारण करने की शक्ति देंगे।
विरजन का सिर झुक गया। आंखें पृथ्वी में पड़ गयीं और एक सिसकी ने हृदय-वेदना की यह अगाध कथा वर्णन की, जिसका होना वाणी द्वारा असंभव था।
विदाई का दिन लड़कियों के लिए कितना शोकमय होता है! बचपन की सब सखियों-सहेलियों, माता-पिता, भाई-बन्धु से नाता टूट जाता है। यह विचार कि मैं फिर भी इस घर में आ सकूंगी, उसे तनिक भी संतोष नहीं देता। क्योंकि अब वह आएगी तो अतिथिभाव से आयेगी। उन लोगों से विलग होना, जिनके साथ जीवनोद्यान में खेलना और स्वातंत्र्य-वाटिका में भ्रमण करना उपलब्ध हुआ हो, उसके हृदय को विदीर्ण कर देता है। आज से उसके सिर पर ऐसा भार पड़ता है, जो आमरण उठाना पड़ेगा।
विरजन का श्रृंगार किया जा रहा था। नाइन उसके हाथों व पैरों में मेंहदी रचा रही थी। कोई उसके बाल गूंथ रही थी। कोई जूड़े में सुगन्ध बसा रही थी। पर जिसके लिये ये तैयारियां हो रही थीं, वह भूमि पर मोती के दाने बिखेर रही थी। इतने में बाहर से संदेशा आया कि मुर्हूत टला जाता है, जल्दी करो। सुवामा पास खड़ी थी। विरजन, उसके गले लिपट गयी और अश्रु-प्रवाह का आतंक, जो अब तक दबी हुई अग्नि की नाई सुलग रहा था, अकस्मात् ऐसा भड़क उठा मानो किसी ने आग में तेल डाल दिया है।
थोड़ी देर में पालकी द्वार पर आई। विरजन पड़ोस की स्त्रियों से गले मिली। सुवामा के चरण छुए, तब दो-तीन स्त्रियों ने उसे पालकी के भीतर बिठा दिया। उधर पालकी उठी, इधर सुवामा मूर्च्छित हो भूमि पर गिर पड़ी, मानो उसके जीते ही कोई उसका प्राण निकालकर लिये जाता था। घर सूना हो गया। सैकड़ों स्त्रियों का जमघट था, परन्तु एक विरजन के बिना घर फाड़े खाता था।
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