सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
1 पाठकों को प्रिय 24 पाठक हैं |
‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
(१२) कमलाचरण के मित्र
जैसे सिन्दूर की लालिमा से मांग रच जाती है, वैसे ही विरजन के आने से प्रेमवती के घर की रौनक बढ़ गई। सुवामा ने उसे ऐसे गुण सिखाये थे कि जिसने उसे देखा, मोह गया। यहां तक कि सेवती की सहेली रानी को भी प्रेमवती के सम्मुख स्वीकार करना पड़ा कि तुम्हारी छोटी बहू ने हम सबों का रंग फीका कर दिया। सेवती उससे दिन-दिन भर बातें करती और उसका जी न ऊबता। उसे अपने गाने पर अभिमान था, पर इस क्षेत्र में भी विरजन बाजी ले गयी।
अब कमलाचरण के मित्रों ने आग्रह करना शुरू किया कि भाई, नई दुलहिन घर में लाये हो, कुछ मित्रों की भी फिक्र करो। सुनते हैं परम सुन्दरी पाये हो।
कमलाचरण को रुपये तो ससुराल से मिले ही थे, जेब खनखनाकर बोले– अजी, दावत लो। शराबें उड़ाओ। हाँ, बहुत शोरगुल न मचाना, नहीं तो कहीं भीतर होगी तो समझेगी कि ये गुण्डे हैं। जब से वह घर में आयी है, मेरे तो होश उड़े हुए हैं। कहता हूं, अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत, अल्लम-गल्लम सभी घोटे बैठी है। डरता हूं कहीं अंग्रेजी में कुछ पूछ बैठी, या फारसी में बातें करने लगी, मुंह ताकने के सिवाय और क्या करूंगा। इसलिए अभी जी बचाता फिरता हूं।
यों तो कमलाचरण के मित्रों की संख्या अपरिमित थी। नगर के जितने कबूतर-बाज, कनकौएबाज गुण्डे थे सब उनके मित्र थे। परन्तु सच्चे मित्रों में केवल पांच महाशय थे और सभी-के-सभी फाकेमस्त छिछोरे थे। इनमें सबसे अधिक शिक्षित मिया मजीद थे। ये कचहरी में अरायजनवीसी किया करते थे। जो कुछ मिलता, वह सब शराब में भेंट करते। दूसरा नम्बर हसीब खां का था। इन महाशय ने बहुत पैतृक संपत्ति पायी थी, परन्तु तीन वर्ष में सब कुछ विलास में लुटा दी। अब यह ढंग था कि सायं को सज-धजकर गलियों में धूल फांकते फिरते थे। तीसरे हजरत सैयद हुसैन थे– पक्के जुआरी, नाल के परम भक्त, सैकड़ों के दांव लगाने वाले, स्त्री के गहनों पर हाथ मांजना तो नित्य का इनका काम था। शेष दो महाशय रामसेवकलाल और चन्दूलाल कचहरी में नौकर थे। वेतन कम, पर ऊपरी आमदनी बहुत थी। आधी सुरापान की भेंट करते, आधी भोग-विलास में उड़ाते। घर में लोग भूखे मरें या भिक्षा माँगें, इन्हें केवल अपने सुख से काम था।
सलाह तो हो चुकी थी। आठ बजे जब डिप्टी साहब लेटे तो ये पाँचों जने एकत्र हुए और शराब के दौर चलने लगे। पांचों पीने में अभ्यस्त थे। अब नशे का रंग जमा, बहक-बहककर बातें करने लगे।
मजीद– क्यों भाई कमलाचरण, सच कहना, स्त्री को देखकर जी खुश हो गया कि नहीं?
कमला– अब आप बहकने लगे क्यों?
रामसेवक– बतला क्यों नहीं देते, इसमें झेंपने की कौन– सी बात है?
|