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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


कमला– बतला क्या अपना सिर दूं, कभी सामने जाने का संयोग भी तो हुआ हो। कल किवाड़ की दरार से एक बार देख लिया था, अभी तक चित्र आंखों पर फिर रहा है।

चन्दूलाल– मित्र, तुम बड़े भाग्यवान हो।

कमला– ऐसा व्याकुल हुआ कि गिरते-गिरते बचा। बस, परी समझ लो।

मजीद– तो भई, यह दोस्ती किस दिन काम आयेगी। एक नजर हमें भी दिखाओ।

सैयद– बेशक दोस्ती के यही माने हैं कि आपस में कोई पर्दा न रहे।

चन्दूलाल– दोस्ती में क्या पर्दा? अंग्रेजों को देखो, बीबी डोली से उतरी नहीं कि यार दोस्त हाथ मिलाने लगे।

रामसेवक– मुझे तो बिना देखे चैन न आयेगा?

कमला– (एक धप लगा कर) जीभ काट ली जाएगी, समझे?

रामसेवक– कोई चिन्ता नहीं, आंखें तो देखने को रहेंगी।

मजीद– भई कमलाचरण, बुरा मानने की बात नहीं, अब इस वक्त तुम्हारा फर्ज है कि दोस्तों की फरमाइश पूरी करो।

कमला– अरे। तो मैं नहीं कब करता हूं?

चन्दूलाल– वाह मेरे शेर! ये ही मर्दों की-सी बातें हैं। तो हम लोग बन-ठनकर आ जायें, क्यों?

कमला– जी, जरा मुंह में कालिख लगा लीजिएगा। बस इतना बहुत है।

सैयद– तो आज ही ठहरी न।

इधर तो शराब उड़ रही थी, उधर विरजन पलंग पर लेटी हुई विचार में मग्न हो रही थी। बचपन के दिन भी कैसे अच्छे होते हैं! यदि वे दिन एक बार फिर आ जाते! ओह! कैसा मनोहर जीवन था! संसार प्रेम और प्रीति की खान था। क्या वह कोई अन्य संसार था? क्या उन दिनों संसार की वस्तुएं बहुत सुन्दर होती थीं? इन्हीं विचारों में आखें झपक गयी और बचपन की एक घटना आंखों के सामने आ गयी। लल्लू ने उसकी गुड़िया मरोड़ दी। उसने उसकी किताब के दो पन्ने फाड़ दिये। तब लल्लू ने उसकी पीठ में जोर से चुटकी ली, बाहर भागा। वह रोने लगी और लल्लू को कोस रही थी कि सुवामा उसका हाथ पकड़े आयी और बोली...क्यों बेटी इसने तुम्हें मारा है न? यह बहुत मार-मार कर भागता है। आज इसकी खबर लेती हूं, देखूं कहां मारा है। लल्लू ने डबडबायी आंखों से विरजन की ओर देखा। तब विरजन ने मुस्कुरा कर कहा...मुझे उन्होंने कहां मारा है। ये मुझे कभी नहीं मारते। यह कहकर उसका हाथ पकड़ लिया। अपने हिस्से की मिठाई खिलाई और फिर दोनों मिलकर खेलने लगे। वह समय अब कहां?

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