सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
रात्रि अधिक बीत गयी थी, अचानक विरजन को जान पड़ा कि कोई सामने वाली दीवार धमधमा रहा है। उसने कान लगाकर सुना। बराबर शब्द आ रहे थे। कभी रुक जाते फिर सुनाई देते। थोड़ी देर में मिट्टी गिरने लगी। डर के मारे विरजन के हाथ-पांव फूलने लगे। कलेजा धक्-धक् करने लगा। जी कड़ा करके उठी और महराजिन को झिंझोड़ने लगी। घिग्घी बंधी हुई थी। इतने में मिट्टी का एक बड़ा ढेला सामने गिरा। महराजिन चौंककर उठ बैठी। दोनों को विश्वास हुआ कि चोर आए हैं। महाराजिन चतुर स्त्री थी। समझी कि चिल्लाऊंगी तो जाग हो जायगी। उसने सुन रखा था कि चोर पहले सेंध में पांव डालकर देखते हैं तब आप घुसते हैं। उसने एक डंडा उठा लिया कि जब पैर डालेगा तो ऐसा तानकर मारूंगी कि टांग टूट जाएगी। पर चोर ने पांव के स्थान पर सिर सेंध में से निकाला। महराजिन घात में थी ही डंडा चला दिया। खटके की आवाज आयी। चोर ने झट सिर खींच लिया और यह कहता हुआ सुनायी दिया– ‘उफ मार डाला, खोपडी झन्ना गयी। फिर कई मनुष्यों के हंसने की ध्वनि आई और तत्पश्चात सन्नाटा हो गया। इतने में और लोग भी जाग पड़े और शेष रात्रि बात-चीत में व्यतीत हुई।
प्रातःकाल जब कमलाचरण घर में आये, तो नेत्र लाल थे और सिर में सूजन थी। महराजिन ने निकट जाकर देखा, फिर आकर विरजन से कहा– बहू एक बात कहूं। बुरा तो न मानोगी?
विरजन– बुरा क्यों मानूगीं, कहों क्या कहती हो?
महराजिन– रात को सेंध पड़ी थी वह चोरों ने नहीं लगायी थी।
विरजन– फिर कौन था?
महराजिन– घर ही के भेदी थे। बाहरी कोई न था।
विरजन– क्या किसी कहार की शरारत थी?
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