सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
यह सब था, कमलाचरण भी प्रेम करता था और वृजरानी भी प्रेम करती थी परन्तु प्रेमियों को संयोग से जो हर्ष प्राप्त होता है, उसका विरजन के मुख पर कोई चिह्न दिखायी नहीं देता था। वह दिन-दिन दुबली और पतली होती जाती थी। कमलाचरण शपथ दे-देकर पूछता कि तुम दुबली क्यों होती जाती हो? उसे प्रसन्न करने के जो-जो उपाय हो सकते करता, मित्रों से भी इस विषय में सम्मति लेता, पर कुछ लाभ न होता था। वृजरानी हंसकर कह दिया करती कि तुम कुछ चिन्ता न करो, मैं बहुत अच्छी तरह हूं। यह कहते-कहते उठकर उसके बालों में कंघी लगाने लगती या पंखा झलने लगती। इन सेवा और सत्कारों से कमलाचरण फूला न समाता। परन्तु लकड़ी के ऊपर रंग और रोगन लगाने से वह कीड़ा नहीं मरता, जो उसके भीतर बैठा हुआ उसका कलेजा खाये जाता है। यह विचार कि प्रतापचंद्र मुझे भूल गये और मैं उनकी दृष्टि में गिर गयी, शूल की भांति उसके हृदय को व्यथित किया करता था। उसकी दशा दिनों-दिनों बिगड़ती गयी– यहां तक कि बिस्तर पर से उठना तक कठिन हो गया। डाक्टरों की दवाएं होने लगीं।
उधर प्रतापचंद्र का प्रयाग में जी लगने लगा था। व्यायाम का तो उसे व्यसन था ही। वहां इसका बड़ा प्रचार था। मानसिक बोझ हलका करने के लिए शारीरिक श्रम से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। प्रातःकाल जिमनास्टिक करता, सांयकाल किक्रेट और फुटबाल खेलता, आठ-नौ बजे रात तक वाटिका की सैर करता। इतने परिश्रम के पश्चात चारपाई पर गिरता तो प्रभात होने ही पर आंख खुलती। छः ही मास में क्रिकेट और फुटबाल का कप्तान बन बैठा और दो-तीन मैच ऐसे खेले कि सारे नगर में धूम हो गयी।
आज क्रिकेट में अलीगढ़ के निपुण खिलाड़ियों से उनका सामना था। ये लोग हिन्दुस्तान के प्रसिद्व खिलाड़ियों को परास्त कर विजय का डंका बजाते यहां आए थे। उन्हें अपनी विजय में तनिक भी संदेह न था। पर प्रयागवाले भी निराश न थे। उनकी आशा प्रतापचंद्र पर निर्भर थी। यदि वह आध घण्टे भी जम गया, तो रनों के ढेर लगा देगा। और यदि इतनी ही देर तक उसका गेंद चल गया, तो फिर उधर का वारा-न्यारा है। प्रताप को कभी इतना बड़ा मैच खेलने का संयोग न मिला था। कलेजा धड़क रहा था कि न जाने क्या हो। दस बजे खेल प्रारंभ हुआ। पहले अलीगढ़ वालों के खेलने की बारी आयी। दो-ढाई घंटे तक उन्होंने खूब करामात दिखलाई। एक बजते-बजते खेल का पहिला भाग समाप्त हुआ। अलीगढ़ ने चार सौ रन किये। अब प्रयागवालों की बारी आयी पर खिलाड़ियों के हाथ-पांव फूले हुए थे। विश्वास हो गया कि हम न जीत सकेंगे। अब खेल का बराबर होना कठिन है। इतने रन कौन करेगा। अकेला प्रताप क्या बना लेगा? पहिला खिलाड़ी आया और तीसरे गेंद में विदा हो गया। दूसरा खिलाड़ी आया और कठिनता से पाँच गेंद खेल सका। तीसरा आया और पहिले ही गेंद में उड़ गया। चौथे ने आकर दो-तीन हिट लगाये, पर जम न सका। पाँचवें साहब कालेज में एक थे, पर यहां उनकी भी एक न चली। थापी रखते-ही-रखते चल दिये। अब प्रतापचन्द्र दृढ़ता से पैर उठाता, बैट घुमाता मैदान में आया दोनों पक्षवालों ने करतल-ध्वनि की। प्रयागवालों की दशा अकथनीय थी। प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि प्रतापचन्द्र की ओर लगी हुई थी। सबके हृदय धड़क रहे थे। चतुर्दिक सन्नाटा छाया हुआ था। कुछ लोग दूर बैठकर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि प्रताप की विजय हो। देवी-देवता स्मरण किये जा रहे थे। पहिला गेंद आया, प्रताप ने खाली दिया। प्रयागवालों का साहस घट गया। दूसरा आया, वह भी खाली गया।प्रयागवालों का, कलेजा नाभि तक बैठ गया। बहुत से लोग छतरी संभाल घर की ओर चले। तीसरा गेंद आया। एक पड़ाके की ध्वनि हुई और गेंद लू (गर्म हवा) की भाँति गगन भेदन करता हुआ हिट पर खड़े होने वाले खिलाड़ी से सौ गज आगे गिरा। लोगों ने तालियाँ बजायीं। सूखे धान में पानी पड़ा। जानेवाले ठिठक गये। निराशों को आशा बँधी। चौथा गेंद आया और पहले गेंद से दस गज आगे गिरा। फील्डर चौंके, हिट पर मदद पहँचायी! पाँचवाँ गेंद आया और कट पर गया। इतने में ओवर हुआ। बालर बदले, नये बालर पूरे वधिक थे। घातक गेंद फेंकते थे। पर उनके पहिले ही गेंद को प्रताप के आकाश में भेजकर सूर्य से स्पर्श करा दिया। फिर तो गेंद और उसकी थापी में मैत्री-सी हो गयी। गेंद आता और थापी से पार्श्व ग्रहण करके कभी पूर्व का मार्ग लेता, कभी पश्चिम का, कभी उत्तर का और कभी दक्षिण का, दौड़ते-दौड़ते फील्डरों की साँसें फूल गयीं, प्रयागवाले उछलते थे और तालियाँ बजाते थे। टोपियाँ वायु में उछल रही थीं। किसी ने रुपये लुटा दिए और किसी ने अपनी सोने की जंजीर लुटा दी। विपक्षी सब मन में कुढ़ते, झल्लाते, कभी क्षेत्र का क्रम परिवर्तन करते, कभी बालर परिवर्तन करते। पर चातुरी और क्रीड़ा-कौशल निरर्थक हो रहा था। गेंद की थापी से मित्रता दृढ़ हो गई थी।
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