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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


पूरे दो घन्टे तक प्रताप पड़ाके, बम-गोले और हवाइयाँ छोड़ता रहा और फील्डर गेंद की ओर इस प्रकार लपकते जैसे बच्चे चन्द्रमा की ओर लपकते हैं। रनों की संख्या तीन सौ तक पहुँच गई। विपक्षियों के छक्के छूटे। हृदय ऐसा भर्रा गया कि एक गेंद भी सीधा न आता था। यहां तक कि प्रताप ने पचास रन और किए और अब उसने अम्पायर से तनिक विश्राम करने के लिए अवकाश माँगा। उसे आता देखकर सहस्रों मनुष्य उसी ओर दौड़े और उसे बारी-बारी से गोद में उठाने लगे। चारों ओर भगदड़ मच गयी। सैकड़ों छाते, छड़ियाँ टोपियाँ और जूते ऊर्ध्वगामी हो गये मानो वे भी उमंग में उछल रहे थे। ठीक उसी समय तारघर का चपरासी बाइसिकल पर आता हुआ दिखायी दिया।

निकट आकर बोला– ‘प्रतापचंद्र किसका नाम है। प्रताप ने चौंककर उसकी ओर देखा और चपरासी ने तार का लिफाफा उसके हाथ में रख दिया। उसे पढ़ते ही प्रताप का बदन पीला हो गया। दीर्घ श्वास लेकर कुर्सी पर बैठ गया और बोला– यारो! अब मैच का निबटारा तुम्हारे हाथ में है। मैंने अपना कर्तव्य-पालन कर दिया, इसी डाक से घर चला जाँऊगा।

यह कहकर वह बोर्डिंग-हाउस की ओर चला। सैकड़ों मनुष्य पूछने लगे– क्या है? क्या है? लोगों के मुख पर उदासी छा गयी पर उसे बात करने का कहाँ अवकाश! उसी समय ताँगे पर चढ़ा और स्टेशन की ओर चला। रास्ते-भर उसके मन में तर्क-वितर्क होते रहे। बार-बार अपने को धिक्कार देता कि क्यों न चलते समय उससे मिल लिया? न जाने अब भेंट हो कि न हो। ईश्वर न करे कहीं उसके दर्शन से वंचित रहूँ; यदि रहा तो मैं भी मुँह में कालिख पोत कहीं मर रहूँगा। यह सोच कर कई बार रोया। नौ बजे रात को गाड़ी बनारस पहुँची। उस पर से उतरते ही सीधा श्यामाचरण के घर की ओर चला। चिन्ता के मारे आँखें डबडबायी हुई थीं और कलेजा धड़क रहा था। डिप्टी साहब सिर झुकाये कुर्सी पर बैठे थे और कमला डाक्टर साहब के यहाँ जाने को उद्यत था। प्रतापचन्द्र को देखते ही दौड़कर लिपट गया। श्यामाचरण ने भी गले लगाया और बोले– क्या अभी सीधे इलाहाबाद से चले आ रहे हो?

प्रताप– जी हाँ! आज माताजी का तार पहुँचा कि विरजन की बहुत बुरी दशा है। क्या अभी वही दशा है?

श्यामाचरण– क्या कहूँ इधर दो-तीन मास से दिनों-दिन उसका शरीर क्षीण होता जाता है, औषधियों का कुछ भी असर नहीं होता। देखें, ईश्वर की क्या इच्छा है । डॉक्टर साहब तो कहते थे, क्षयरोग है। पर वैद्यराज जी हृदय दौर्बल्य बतलाते हैं।

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