सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
विरजन को जब से सूचना मिली कि प्रतापचन्द्र आये हैं, तब से उसके हृदय में आशा और भय की घुड़दौड़ मची हुई थी। कभी सोचती कि घर आये होंगे, चाची ने बरबस ठेल-ठालकर यहाँ भेज दिया होगा। फिर ध्यान हुआ, हो न हो, मेरी बीमारी का समाचार पा, घबड़ाकर चले आये हों, परन्तु नहीं। उन्हें मेरी ऐसी क्या चिन्ता पड़ी है? सोचा होगा– कहीं मर न जाए, चलूँ सांसारिक व्यवहार पूरा करता आऊं। उन्हें मेरे मरने-जीने का क्या सोच? आज मैं भी महाशय से जी खोलकर बातें करूंगी? पर नहीं बातों की आवश्यकता ही क्या है? उन्होंने चुप साधी है, तो मैं क्या बोलूँ? बस इतना कह दूँगी कि बहुत अच्छी हूँ और आपके कुशल की कामना रखती हूँ! फिर मुख न खोलूँगी! और मैं यह मैली-कुचैली साड़ी क्यों पहिने हूँ? जो अपना संवेदी न हो उसके आगे यह वेश बनाये रखने से लाभ? वह अतिथि की भाँति आए हैं। मैं भी पाहुनी की भाँति उनसे मिलूँगी। मनुष्य का चित्त कैसा चचंल है? जिस मनुष्य की अकृपा ने विरजन की यह गति बना दी थी, उसी को जलाने के लिए ऐसे-ऐसे उपाय सोच रही है।
दस बजे का समय था। माधवी बैठी पंखा झल रही थी। औषधियों की शीशियाँ इधर-उधर पड़ी हुई थीं और विरजन चारपाई पर पड़ी हुई ये ही सब बातें सोच रही थी कि प्रताप घर में आया। माधवी चौंककर बोली– बहिन, उठो आ गये। विरजन झपटकर उठी और चारपाई से उतरना चाहती थी कि निर्बलता के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रताप ने उसे सँभाला और चारपाई पर लिटा दिया। हा! यह वही विरजन है जो आज से कई मास पूर्व रूप एवं लावण्य की मूर्ति थी, जिसके मुखड़े पर चमक और आँखों में हँसी का वास था, जिसका भाषण श्यामा का गाना और हँसना मन का लुभाना था। वह रसीली आँखों वाली, मीठी बातों वाली विरजन आज केवल अस्थिचर्मावशेष है। पहचानी नहीं जाती। प्रताप की आँखों में आँसू भर आये। कुशल पूछना चाहता था, पर मुख से केवल इतना निकला– विरजन! और नेत्रों से जल-बिन्दु बरसने लगे। प्रेम की आँखें मनोभावों के परखने की कसौटी हैं। विरजन ने आंख उठाकर देखा और उन अश्रु-बिन्दुओं ने उसके मन का सारा मैल धो दिया।
जैसे कोई सेनापति आने वाले युद्व का चित्र मन में सोचता है और शत्रु को अपनी पीठ पर देखकर बदहवास हो जाता है और उसे निर्धारित चित्र का कुछ ध्यान भी नहीं रहता, उसी प्रकार विरजन प्रतापचन्द्र को अपने सम्मुख देखकर सब बातें भूल गयी, जो अभी पड़ी-पड़ी सोच रही थी। वह प्रताप को रोते देखकर अपना सब दुःख भूल गयी और चारपाई से उठकर आंचल से आंसू पोंछने लगी। प्रताप, जिसे अपराधी कह सकते हैं, इस समय दीन बना हुआ था और विरजन जिसने अपने को सुखाकर इस दशा तक पहुँचाया था-रो-रोकर उससे कह रही थी-लल्लू चुप रहो, ईश्वर जानता है, मैं भली-भाँति अच्छी हूँ। मानो अच्छा न होना उसका अपराध था। स्त्रियों की संवेदनशीलता कैसी कोमल होती है! प्रतापचन्द्र के एक साधारण संकोच ने विरजन को इस जीवन से उपेक्षित बना दिया था। आज आंसू की कुछ बूंदों की उसके हृदय के उस सन्ताप, उस जलन और उस अग्नि को शान्त कर दिया, जो कई महीनों से उसके रुधिर और हृदय को जला रही थी। जिस रोग की बड़े-बड़े वैद्य और डॉक्टर अपनी औषधि तथा उपाय से अच्छा न कर सके थे, उसे अश्रु-बिन्दुओं ने क्षण-भर में चंगा कर दिया। क्या वह पानी के बिन्दु अमृत के बिन्दु थे?
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