सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
प्रताप ने धीरज धरकर पूछा– विरजन! तुमने अपनी क्या गति बना रखी है?
विरजन (हँसकर)– यह गति मैंने नहीं बनायी, तुमने बनायी है।
प्रताप– माताजी का तार न पहुँचा तो मुझे सूचना भी न होती।
विरजन– आवश्यकता ही क्या थी? जिसे भुलाने के लिए तो तुम प्रयाग चले गए, उसके मरने-जीने की तुम्हें क्या चिन्ता?
प्रताप– बातें बना रही हो। पराये को क्यों पत्र लिखतीं?
विरजन– किसे आशा थी कि तुम इतनी दूर से आने का या पत्र लिखने का कष्ट उठाओगे? जो द्वार से आकर फिर जाय और मुख देखने से घृणा करे उसे पत्र भेजकर क्या करती?
प्रताप– उस समय लौट जाने का जितना दुःख मुझे हुआ, मेरा चित्त ही जानता है। तुमने उस समय तक मेरे पास कोई पत्र न भेजा था। मैंने समझा, अब सुध भूल गयी।
विरजन– यदि मैं तुम्हारी बातों को सच न समझती होती तो कह देती कि ये सब सोची हुई बातें हैं।
प्रताप– भला जो समझो, अब यह बताओ कि कैसा जी है? मैंने तुम्हें पहिचाना नहीं, ऐसा मुख फीका पड़ गया है।
विरजन– अब अच्छी हो जाँऊगी, औषधि मिल गयी।
प्रताप संकेत समझ गया। हा, शोक! मेरी तनिक-सी चूक ने यह प्रलय कर दिया। देर तक उसे समझाता रहा और प्रातःकाल जब वह अपने घर चला तो विरजन का बदन विकसित था। उसे विश्वास हो गया कि लल्लू मुझे भूले नहीं हैं और मेरी सुध और प्रतिष्ठा उनके हृदय में विद्यामन है। प्रताप ने उसके मन से वह काँटा निकाल दिया, जो कई मास से खटक रहा था और जिसने उसकी यह गति कर रखी थी। एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वर्ण हो गया, मानो कभी बीमार ही न थी।
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