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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


माधवी ने यहाँ कई सखियाँ बना रखी हैं। पड़ोस में एक अहीर रहता है। राधा नाम है। गत वर्ष माता-पिता प्लेग के ग्रास हो गये थे। गृहस्थी का कुल भार उसी के सिर पर है। उसकी स्त्री तुलसा प्रायः हमारे यहाँ आती है। नख से सिख तक सुन्दरता भरी हुई है। इतनी भोली है कि जी चाहता है कि घण्टों बातें सुना करूँ। माधवी ने इससे बहिनापन कर रखा है। कल उसकी गुड़ियों का विवाह है। तुलसा की गुड़िया है और माधवी का गुड्डा। सुनती हूँ, बेचारी बहुत निर्धन है। पर मैंने उसके मुख पर कभी उदासी नहीं देखी। कहती थी कि उपले बेचकर दो रुपये जमा कर लिए हैं। एक रुपया दायज दूँगी और एक रुपये में बरातियों का खाना-पीना होगा। गुड़ियों के वस्त्राभूषण का भार राधा के सिर है! कैसा सरल संतोषमय जीवन है!

लो, अब विदा होती हूँ। तुम्हारा समय निरर्थक बातों में नष्ट हुआ। क्षमा करना। तुम्हें पत्र लिखने बैठती हूँ, तो लेखनी ही नहीं रुकती। अभी बहुतेरी बातें लिखने को पड़ी हैं। प्रतापचन्द्र से मेरी पालागन कह देना।

तुम्हारी
विरजन

 

(३)

मझगाँव

प्यारे,
तुम्हारी, प्रेम-पत्रिका मिली। छाती से लगायी। वाह! चोरी और मुँहजोरी। अपने न आने का दोष मेरे सिर धरते हो? मेरे मन से कोई पूछे कि तुम्हारे दर्शन की उसे कितनी अभिलाषा है? अब यह अभिलाषा प्रतिदिन व्याकुलता के रूप में परिणत होती है। कभी-कभी बेसुध हो जाती हूँ। मेरी यह दशा थोड़ी ही दिनों से होने लगी है। जिस समय यहाँ से गये हो, मुझे ज्ञान न था कि वहाँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम्हीं सच और मैं ही झूठ। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि तुमने मेरे दोनों पत्र पसन्द किये। पर प्रतापचन्द्र को व्यर्थ दिखाये। वे पत्र बड़ी असावधानी से लिखे गये है। सम्भव है कि अशुद्वियाँ रह गयी हों। मुझे विश्वास नहीं आता कि प्रताप ने उन्हें मूल्यवान समझा हो। यदि वे मेरे पत्रों का इतना आदर करते हैं कि उनके सहारे से हमारे ग्राम्य-जीवन पर कोई रोचक निबन्ध लिख सकें, तो मैं अपने को परम भाग्यवान समझती हूँ।

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