सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
मझगाँव
प्यारे,
एक सप्ताह तक चुप रहने की क्षमा चाहती हूँ। मुझे इस सप्ताह में तनिक भी अवकाश न मिला। माधवी बीमार हो गयी थी। पहले तो कुनैन को कई पुड़ियाँ खिलायी गयीं ।पर जब लाभ न हुआ और उसकी दशा और भी बुरी होने लगी, तो, दिहलूराय वैद्य बुलाये गए। कोई पचास वर्ष की आयु होगी। नंगे पाँव सिर पर एक पगड़ी बाँधे, कन्धे पर अंगोछा रखे, हाथ में मोटा-सा सोंटा लिये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के जमींदार हैं, पर किसी ने उनके शरीर में मिर्जई तक नहीं देखी। उन्हें इतना अवकाश ही नहीं कि अपने शरीर-पालन की ओर ध्यान दे। इस मंडल में आठ-दस कोस तक के लोग उन पर विश्वास करते हैं। न वे हकीम को जानें, न डाक्टर को। उनके हकीम-डॉक्टर जो कुछ हैं वे दिहलूराय हैं। सन्देशा सुनते ही आकर द्वार पर बैठ गए। डॉक्टरों की भाँति नहीं की प्रथम सवारी माँगेंगे– वह भी तेज जिसमें उनका समय नष्ट न हो। आपके घर ऐसे बैठे रहेंगे, मानो गूँगे का गुड़ खा गये हैं। रोगी को देखने जायेंगे तो इस प्रकार भागेंगे मानो कमरे की वायु में विष भरा हुआ है। रोग परिचय और औषधि का उपचार केवल दो मिनट में समाप्त। दिहलूराय डॉक्टर नहीं हैं– पर जितने मनुष्यों को उनसे लाभ पहुँचता है, उनकी संख्या का अनुंमान करना कठिन है। वह सहानुभूति की मूर्ति है। उन्हें देखते ही रोगी का आधा रोग दूर हो जाता है। उनकी औषधियाँ ऐसी सुगम और साधारण होती हैं कि बिना पैसा-कौड़ी मनों बटोर लाइए। तीन ही दिन में माधवी चलने-फरने लगी। वस्तुतः उस वैद्य की औषधि में चमत्कार है।
यहाँ इन दिनों मुगलिये ऊधम मचा रहे हैं। ये लोग जाड़े में कपड़े उधार दे देते हैं और चैत में दाम वसूल करते हैं। उस समय कोई बहाना नहीं सुनते। गाली-गलौज मार-पीट सभी बातों पर उतर आते हैं। दो-तीन मनुष्यों को बहुत मारा। राधा ने भी कुछ कपड़े लिए थे। उनके द्वार पर जाकर सब-के-सब गालियाँ देने लगे। तुलसा ने भीतर से किवाड़ बन्द कर दिए। जब इस प्रकार बस न चला, तो एक मोहनी गाय को खूँटे से खोलकर खींचते हुए ले चला। इतने में राधा दूर से आता दिखाई दिया। आते ही आते उसने लाठी का वह हाथ मारा कि एक मुगलिये की कलाई लटक पड़ी। तब तो मुगलिये कुपित हुए, पैंतरे बदलने लगे। राधा भी जान पर खेल गया और तीन दुष्टों को बेकार कर दिया। इतने में काशी भर ने आकर एक मुगलिये की खबर ली। दिहलूराय को मुगालियों से चिढ़ है। साभिमान कहा करते हैं कि मैंने इनके इतने रुपए डुबा दिये इतनों को पिटवा दिया कि जिसका हिसाब नहीं। यह कोलाहल सुनते ही वे भी पहुँच गये। फिर तो सैकड़ों मनुष्य लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े। उन्होंने मुगलियों की भली-भाँति सेवा की। आशा है कि इधर आने का अब साहस न होगा।
अब तो मई का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी नहीं हुई? रात-दिन तुम्हारे आने की प्रतीक्षा है। नगर में बीमारी कम हो गई है। हम लोग बहुत शीघ्र यहाँ से चले जायेंगे। शोक! तुम इस गाँव की सैर न कर सकोगे।
विरजन
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