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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(१८) प्रतापचन्द्र और कमलाचरण

प्रतापचन्द्र को प्रयाग कॉलेज में पढ़ते तीन साल हो चुके थे। इतने काल में उसने अपने सहपाठियों और गुरुजनों की दृष्टि में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली थी। कॉलेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था जहाँ उनकी प्रतिभा न प्रदर्शित हुई हो। प्रोफेसर उस पर अभिमान करते और छात्रगण उसे अपना नेता समझते हैं। जिस प्रकार क्रीड़ा-क्षेत्र में उसका हस्तलाघव प्रशंसनीय था, उसी प्रकार व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और सूक्ष्मदर्शिता प्रमाणित थी। कॉलेज से सम्बद्ध एक मित्र-सभा स्थापित की गयी थी। नगर के साधारण सभ्य जन, कॉलेज के प्रोफेसर और छात्र-गण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का उज्ज्वल चन्द्र था। यहाँ देशिक और सामाजिक विषयों पर विचार हुआ करते थे। प्रताप की वक्तृताएँ ऐसी ओजस्विनी और तर्क-पूर्ण होती थीं की प्रोफेसरों को भी उसके विचार और विषयान्वेषण पर आश्चर्य होता था। उसकी वक्तृता और उसके खेल दोनों ही प्रभावपूर्ण होते थे। जिस समय वह अपने साधारण वस्त्र पहिने हुए प्लेटफार्म पर जाता, उस समय सभा स्थित लोगों की आँख उसकी ओर एकटक देखने लगतीं और चित्त में उत्सुकता और उत्साह की तरंगें उठने लगतीं। उसका वाक्यचातुर्य उसके संकेत और मृदुल उच्चारण, उसके अंगोंपांग की गति, सभी ऐसे प्रभाव-पूरित होते थे मानो शारदा स्वयं उसकी सहायता करती है। जब तक वह प्लेटफार्म पर रहता सभासदों पर एक मोहिनी-सी छायी रहती। उसका एक-एक वाक्य हृदय में भेद जाता और मुख से सहसा ‘वाह-वाह!’ के शब्द निकल जाते। इसी विचार से उसकी वक्तृताएँ प्रायः अन्त में हुआ करती थीं क्योंकि बहुधा श्रोतागण उसी की वाक्तीक्ष्णता का आस्वादन करने के लिए आया करते थे। उनके शब्दों और उच्चारणों में स्वाभाविक प्रभाव था। साहित्य और इतिहास उसके अन्वेषण और अध्ययन के विशेष विषय थे। जातियों की उन्नति और अवनति तथा उसके कारण और गति पर वह प्रायः विचार किया करता था। इस समय उसके इस परिश्रम और उद्योग के प्ररेक तथा वर्द्वक विशेषकर श्रोताओं के साधुवाद ही होते थे और उन्हीं को वह अपने कठिन परिश्रम का पुरस्कार समझता था। हाँ, उसके उत्साह की यह गति देखकर यह अनुमान किया जा सकता था कि वह होनहार बिरवा आगे चलकर कैसे फल-फूल लाएगा और कैसे रंग-रूप निकालेगा। अभी तक उसने क्षण एक भर के लिए भी इस पर ध्यान नहीं दिया था कि मेरे आगामी जीवन का क्या स्वरूप होगा। कभी सोचता कि प्रोफेसर हो जाँऊगा और खूब पुस्तकें लिखूँगा। कभी वकील बनने की भावना करता। कभी सोचता, यदि छात्रवृत्ति प्राप्त होगी तो सिविल सविर्स का उद्योग करूंगा। किसी एक ओर मन नहीं टिकता था।

परन्तु प्रतापचन्द्र उन विद्याथियों में से न था, जिनका सारा उद्योग वक्तृता और पुस्तकों ही तक परिमित रहता है। उसके संयम और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के लाभार्थ भी व्यय होता था। उसने प्रकृति से उदार और दयालु हृदय पाया था और सर्व– साधारण से मिलने-जुलने और काम करने की योग्यता उसे पिता से मिली थी। इन्हीं कार्यों में उसका सदुत्साह पूर्ण रीति से प्रमाणित होता था। बहुधा सन्ध्या समय वह कीटगंज और कटरा की दुर्गन्धपूर्ण गलियों में घूमता दिखायी देता जहाँ विशेषकर नीची जाति के लोग बसते हैं। जिन लोगों की परछाई से उच्चवर्ण का हिन्दू भागता है, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठ कर घंटों बातें करता और यही कारण था कि इन मुहल्लों के निवासी उस पर प्राण देते थे। प्रमाद और शारीरिक सुख-प्रलोभ– ये दो अवगुण प्रतापचन्द्र में नाम-मात्र को भी न थे। कोई अनाथ मनुष्य हो प्रताप उसकी सहायता के लिए तैयार था। कितनी रातें उसने झोपड़ों में कराहते हुए रोगियों के सिरहाने खड़े रहकर काटी थीं। इसी अभिप्राय से उसने जनता के लाभार्थ एक सभा भी स्थापित कर रखी थी और ढाई वर्ष के अल्प समय में ही इस सभा ने जनता की सेवा में इतनी सफलता प्राप्त की थी कि प्रयागवासियों को उससे प्रेम हो गया था।

कमलाचरण जिस समय प्रयाग पहुँचा, प्रतापचन्द्र ने उसका बड़ा आदर किया। समय ने उसके चित्त के द्वेष की ज्वाला शांत कर दी थी। जिस समय वह विरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस पहुँचा था और उससे भेंट होते ही विरजन की दशा सुधर चली थी, उसी समय प्रताप चन्द्र को विश्वास हो गया था कि कमलाचरण ने उसके हृदय में वह स्थान नहीं पाया है जो मेरे लिए सुरक्षित है। यह विचार द्वेषाग्नि को शान्त करने के लिए काफी था। इसके अतिरिक्त उसे प्रायः यह विचार भी उद्विगन किया करता था कि मैं ही सुशीला का प्राणघातक हूँ। मेरी ही कठोर वाणियों ने उस बेचारी का प्राणाघात किया और उसी समय से जब कि सुशीला ने मरते समय रो-रोकर उससे अपने अपराधों की क्षमा माँगी थी, प्रताप ने मन में ठान लिया था। कि अवसर मिलेगा तो मैं इस पाप का प्रायश्चित अवश्य करुंगा। कमलाचरण का आदर-सत्कार तथा शिक्षा-सुधार में उसे किसी अंश में प्रायश्चित को पूर्ण करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ। वह उससे उस प्रकार व्यवहार रखता, जैसे छोटा भाई बड़े भाई के साथ। अपने समय का कुछ भाग उसकी सहायता करने में व्यय करता और ऐसी सुगमता से शिक्षक का कर्त्तव्य पालन करता कि शिक्षा एक रोचक कथा का रूप धारण कर लेती।

परन्तु प्रतापचन्द्र के इन प्रयत्नों के होते हुए भी कमलाचरण का जी यहाँ बहुत घबराता। सारे छात्रावास में उसके स्वाभावनुकूल एक मनुष्य भी न था, जिससे वह अपने मन का दुःख कहता। वह प्रताप से निस्संकोच रहते हुए भी चित्त की बहुत-सी बातें न कहता था। जब निर्जनता से जी अधिक घबराता तो विरजन को कोसने लगता कि मेरे सिर पर यह सब आपत्तियाँ उसी की लादी हुई हैं। उसे मुझसे प्रेम नहीं। मुख और लेखनी का प्रेम भी कोई प्रेम है? मैं चाहे उस पर प्राण ही क्यों न वारूं, पर उसका प्रेम वाणी और लेखनी से बाहर न निकलेगा। ऐसी मूर्ति के आगे, जो पसीजना जानती ही नहीं, सिर पटकने से क्या लाभ? इन विचारों ने यहाँ तक जोर पकड़ा कि उसने विरजन को पत्र लिखना भी त्याग दिया। वह बेचारी अपने पत्रों में कलेजा निकलाकर रख देती, पर कमला उत्तर तक न देता। यदि देता भी तो रूखा और हृदय-विदारक। इस समय विरजन की एक-एक बात, उसकी एक-एक चाल उसके प्रेम की शिथिलता का परिचय देती हुई प्रतीत होती थी। हाँ, यदि विस्मरण हो गई थी तो विरजन की स्नेहमयी बातें, वे मतवाली आँखें जो वियोग के समय डबडबा गयी थीं और कोमल हाथ जिन्होंने उससे विनती की थी कि पत्र बराबर भेजते रहना। यदि वे उसे स्मरण हो आते, तो सम्भव था कि उसे कुछ संतोष होता। परन्तु ऐसे अवसरों पर मनुष्य की स्मरणशक्ति धोखा दे दिया करती है।

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