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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन खड़ी हो गई और रोती हुई बोली– माता! जिसे नारायण ने कुचला, उसे आप क्यों कुचलती हैं!

निदान प्रेमवती का चित्त वहाँ से ऐसा उचाट हुआ कि एक मास के भीतर सब सामान औने-पौने बेचकर मझगाँव चली गयी। वृजरानी भवन में अकेली रह गई! माधवी के अतिरिक्त अब उसका कोई हितैषी न रहा। सुवामा को अपनी मुँह बोली बेटी की विपत्तियों का ऐसा ही शोक हुआ, जितना अपनी बेटी का होता। कई दिन तक रोती रही और कई दिन बराबर उसे समझाने के लिए आती रही। जब विरजन अकेली रह गयी तो सुवामा ने चाहा कि मेरे यहाँ उठ आए और सुख से रहे। स्वयं कई बार बुलाने गयी, पर विरजन किसी प्रकार जाने को राजी न हुई। वह सोचती थी कि ससुर को संसार से सिधारे भी तीन मास भी नहीं हुए, इतनी जल्दी यह घर सूना हो जाएगा, तो लोग कहेंगे कि उनके मरते ही सास और बहू लड़ मरीं। यहाँ तक कि उसके इस हठ से सुवामा का मन मोटा हो गया।

मझगाँव में प्रेमवती ने एक अंधेर मचा रखी थी। असामियों को कटु वचन कहती। कारिन्दा के सिर पर जूती पटक दी। पटवारी को कोसा। राधा अहीर की गाय बलात् छीन ली। यहाँ तक कि गाँव वाले घबरा गए! उन्होंने बाबू राधाचरण से शिकायत की। राधाचरण ने यह समाचार सुना तो विश्वास हो गया कि अवश्य इन दुर्घटनाओं ने अम्माँ की बुद्वि भ्रष्ट कर दी है। इस समय किसी प्रकार इनका मन बहलाना चाहिए। सेवती को लिखा कि तुम माताजी के पास चली जाओ और उनके संग कुछ दिन रहो। सेवती की गोद में उन दिनों एक चाँद-सा बालक खेल रहा था और प्राणनाथ दो मास की छुट्टी लेकर दरभंगा से आये थे। राजा साहब के प्राइवेट सेक्रटेरी हो गये थे। ऐसे अवसर पर सेवती कैसे आ सकती थी? तैयारियाँ करते-करते महीनों गुजर गए। कभी बच्चा बीमार पड़ गया, कभी सास रुष्ट हो गयी कभी साइत न बनी। निदान छठे महीने उसे अवकाश मिला। वह भी बड़े विपत्तियों से।

परन्तु प्रेमवती पर उसके आने का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। वह उसके गले मिलकर रोयी भी नहीं, उसके बच्चे की ओर आँख उठाकर भी न देखा। उसके हृदय में अब ममता और प्रेम नाम मात्र को भी न रह गया था। जैसे ईख से रस निकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय से प्रेम निकल गया, वह अस्थि चर्म का एक ढेर रह जाता है। देवी-देवता का नाम मुख पर आते ही उसके तेवर बदल जाते थे। मझगाँव में जन्माष्टमी हुई। लोगों ने ठाकुरजी का व्रत रखा और चन्दे से नाच कराने की तैयारियाँ करने लगे। परन्तु प्रेमवती ने ठीक जन्म के अवसर पर अपने घर की मूर्ति खेत से फिकवा दी। एकादशी ब्रत टूटा, देवताओं की पूजा छूटी। वह प्रेमवती ही न थी।

सेवती ने ज्यों-त्यों करके यहाँ दो महीने काटे। उसका चित्त बहुत घबराता। कोई सखी-सहेली भी न थी, जिसके संग बैठकर दिन काटती। विरजन ने तुलसा को अपनी सखी बना लिया था। परन्तु सेवती का स्वभाव सरल न था। ऐसी स्त्रियों से मेल-जोल करने में वह अपनी मानहानि समझती थी। तुलसा बेचारी कई बार आयी, परन्तु जब देखा कि यह मन खोलकर नहीं मिलती तो आना-जाना छोड़ दिया।

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