सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
तीन मास व्यतीत हो चुके थे। एक दिन सेवती दिन चढ़े तक सोती रही। प्राणनाथ ने रात को बहुत रुलाया था। जब नींद उचटी तो क्या देखती है कि प्रेमवती उसके बच्चे को गोद में लिये चूम रही है। कभी आखों से लगाती है, कभी छाती से चिपटाती है। सामने अंगीठी पर हलुआ पक रहा है। बच्चा उसकी ओर उंगली से संकेत करके उछलता है कि कटोरे में जा बैठूँ और गरम-गरम हलुआ चखूँ। आज उसका मुखमण्डल कमल की भाँति खिला हुआ है। शायद उसकी तीव्र दृष्टि ने यह जान लिया है कि प्रेमवती के शुष्क हृदय में प्रेम ने आज फिर से निवास किया है। सेवती को विश्वास न हुआ। वह चारपाई पर पुलकित लोचनों से ताक रही थी मानो स्वप्न देख रही थी। इतने में प्रेमवती प्यार से बोली– उठो बेटी! उठो! दिन बहुत चढ़ आया है।
सेवती के रोंगटे खड़े हो गए और आंखें भर आयीं। आज बहुत दिनों के पश्चात् माता के मुख से प्रेममय वचन सुने। झट उठ बैठी और माता के गले लिपट कर रोने लगी। प्रेमवती की आँखों से भी आंसू की झड़ी लग गई, सूखा वृक्ष हरा हुआ। जब दोनों के आँसू थमे तो प्रेमवती बोली– सित्तो! तुम्हें आज यह बातें अचरज प्रतीत होती हैं; हाँ बेटी, अचरज ही न। मैं कैसे रोऊं, जब आंखों में आंसू ही न रहे? प्यार कहाँ से लाऊं जब कलेजा सूखकर पत्थर हो गया? ये सब दिनों के फेर हैं। आँसू उनके साथ गये और कमला के साथ। आज न जाने ये दो बूँद कहाँ से निकल आये? बेटी! मेरे सब अपराध क्षमा करना।
यह कहते-कहते उसकी आँखें झपकने लगीं। सेवती घबरा गई। माता को बिस्तर पर लेटा दिया और पंखा झलने लगी। उस दिन से प्रेमवती की यह दशा हो गयी कि जब देखो रो रही है। बच्चे को एक क्षण के लिए भी पास से दूर नहीं करती। महरियों से बोलती तो मुख से फूल झड़ते। फिर वही पहिले की सुशीला प्रेमवती हो गयी। ऐसा प्रतीत होता था, मानो उसके हृदय पर से एक पर्दा-सा उठ गया है! जब कड़ाके का जाड़ा पड़ता है, तो प्रायः नदियाँ बर्फ से ढँक जाती हैं। उसमें बसने वाले जलचर बर्फ के पर्दे में छिप जाते हैं, नौकाएँ फँस जाती हैं और मंदगति, रजतवर्ण प्राण-संजीवन जल-स्रोत का स्वरूप कुछ भी दिखायी नहीं देता है। यद्यपि बर्फ की चद्दर की ओट में वह मधुर निद्रा में अलसित पड़ा रहता था, तथापि जब गरमी का साम्राज्य होता है, तो बर्फ पिघल जाती है और रजतवर्ण नदी अपनी बर्फ की चद्दर उठा लेती है, फिर मछलियाँ और जलजन्तु आ बहते हैं, नौकाओं के पाल लहराने लगते हैं और तट पर मनुष्यों और पक्षियों का जमघट हो जाता है।
परन्तु प्रेमवती की यह दशा बहुत दिनों तक स्थिर न रही। यह चेतनता मानो मृत्यु का सन्देश थी। इस चित्तोद्विग्नता ने उसे अब तक जीवन-कारावास में रखा था, अन्यथा प्रेमवती जैसी कोमल-हृदय स्त्री विपत्तियों के ऐसे झोंके कदापि न सह सकती।
सेवती ने चारों ओर तार दिलवाये कि आकर माताजी को देख जाओ पर कहीं से कोई न आया। प्राणनाथ को छुट्टी न मिली, विरजन बीमार थी, रहे राधाचरण। वह नैनीताल वायु परिवर्तन करने गये हुए थे। प्रेमवती को पुत्र ही को देखने की लालसा थी, पर जब उनका पत्र आ गया कि इस समय मैं नहीं आ सकता, तो उसने एक लम्बी साँस लेकर आँखें मूँद ली, और ऐसी सोयी कि फिर उठना नसीब न हुआ!
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