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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...

(२२) माधवी

कभी-कभी वन के फूलों में वह सुगन्ध और रंग-रूप मिल जाता है जो सजी हुई वाटिकाओं को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। माधवी थी तो एक मूर्ख और दरिद्र मनुष्य की लड़की, परन्तु विधाता ने उसे नारियों के सभी उत्तम गुणों से सुशोभित कर दिया था। उसमें शिक्षा सुधार को ग्रहण करने की विशेष योग्यता थी। माधवी और विरजन का मिलाप उस समय हुआ जब विरजन ससुराल आयी। इस भोली-भाली कन्या ने उसी समय से विरजन के संग असाधारण प्रीति प्रकट करनी आरम्भ की। ज्ञात नहीं, वह उसे देवी समझती थी या क्या? परन्तु कभी उसने विरजन के विरुद्व एक शब्द भी मुख से न निकाला। विरजन भी उसे अपने संग सुलाती और अच्छे-अच्छे रेशमी वस्त्र पहनाती। इससे अधिक प्रीति वह अपनी छोटी भगिनी से भी नहीं कर सकती थी। चित्त का चित्त से सम्बन्ध होता है। यदि प्रताप को वृजरानी से हार्दिक सम्बन्ध था तो वृजरानी भी प्रताप के प्रेम में पगी हुई थी। जब कमलाचरण से उसके विवाह की बात पक्की हुई जो वह प्रतापचन्द्र से कम दुखी न हुई। हां लज्जावश उसके हृदय के भाव कभी प्रकट न होते थे। विवाह हो जाने के पश्चात उसे नित्य चिन्ता रहती थी कि प्रतापचन्द्र के पीड़ित हृदय को कैसे तसल्ली दूं? मेरा जीवन तो इस भांति आनन्द से बीतता है। बेचारे प्रताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती होगी। माधवी उन दिनों ग्यारहवें वर्ष में थी। उसके रंग-रूप की सुन्दरता, स्वभाव और गुण देख-देखकर आश्चर्य होता था। विरजन को अचानक यह ध्यान आया कि क्या मेरी माधवी इस योग्य नहीं कि प्रताप उसे अपने कण्ठ का हार बनाये? उस दिन से वह माधवी के सुधार और प्यार में और भी अधिक प्रवृत हो गई। वह सोच-सोचकर मन-ही-मन-फूली न समाती कि जब माधवी सोलह-सत्रह वर्ष की हो जायेगी, तब मैं प्रताप के पास जाऊंगी और उससे हाथ जोड़कर कहूंगी कि माधवी मेरी बहिन है। उसे आज से तुम अपनी चेरी समझो क्या प्रताप मेरी बात टाल देंगे? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। आनन्द तो तब है जब कि चाची स्वयं माधवी को अपनी बहू बनाने की मुझसे इच्छा करें। इसी विचार से विरजन ने प्रतापचन्द्र के प्रशंसनीय गुणों का चित्र माधवी के हृदय में खींचना आरम्भ कर दिया, जिससे कि उसका रोम-रोम प्रताप के प्रेम में पग जाय। वह जब प्रतापचन्द्र का वर्णन करने लगती तो स्वतः उसके शब्द असामान्य रीति से मधुर और सरस हो जाते। शनैः-शनैः) माधवी का कोमल हृदय प्रेम-प्रेमरस का आस्वादन करने लगा। दर्पण में बाल पड़ गया।

भोली माधवी सोचने लगी, मैं कैसी भाग्यवती हूं। मुझे ऐसे स्वामी मिलेंगे जिनके चरण धोने के योग्य भी मैं नहीं हूं, परन्तु क्या वे मुझे अपनी चेरी बनायेंगे? कुछ तो, मैं अवश्य उनकी दासी बनूंगी और यदि प्रेम में कुछ आकषर्ण है, तो मैं उन्हें अवश्य अपना बना लूंगी। परन्तु उस बेचारी को क्या मालूम था कि ये आशाएं शोक बनकर नेत्रों के मार्ग से बह जायेंगी? उसका पन्द्रहवां वर्ष पूरा भी न हुआ था कि विरजन पर गृह-विनाश की आपत्तियां आ पड़ी। उस आंधी के झोंके ने माधवी की इस कल्पित पुष्प वाटिका का सत्यानाश कर दिया। इसी बीच में प्रताप चन्द्र के लोप होने का समाचार मिला। आंधी ने जो कुछ अवशिष्ठ रखा था वह भी इस अग्नि ने जलाकर भस्म कर दिया।

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