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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन– हां उनका तो ध्यान ही नहीं रहा देखें, क्या कहती हैं। प्रसन्न तो क्या होंगी।

माधवी– उनकी तो अभिलाषा ही यह थी, प्रसन्न क्यों न होंगी?

विरजन– चल? माता ऐसा समाचार सुनकर कभी प्रसन्न नहीं हो सकती। दोनों स्त्रियाँ घर से बाहर निकलीं। विरजन का मुखकमल मुरझाया हुआ था, पर माधवी का अंग– अंग हर्ष से खिला जाता था। कोई उससे पूछे– तेरे चरण अब पृथ्वी पर क्यों नहीं पड़ते? तेरे पीले बदन पर क्यों प्रसन्नता की लाली झलक रही है? तुझे कौन-सी सम्पत्ति मिल गयी? तू अब शोकान्वित और उदास क्यों न दिखायी पड़ती? तुझे अपने प्रियतम से मिलने की अब कोई आशा नहीं, तुझ पर प्रेम की दृष्टि कभी नहीं पहुंची फिर तू क्यों फूली नहीं समाती? इसका उत्तर माधवी देगी? कुछ नहीं। वह सिर झुका लेगी, उसकी आंखें नीचे झुक जाएंगी, जैसे डालियां फूलों के भार से झुक जाती हैं। कदाचित् उनसे कुछ अश्रुबिन्दु भी टपक पडें; किन्तु उसकी जिह्वा से एक शब्द भी न निकलेगा।

माधवी प्रेम के मद से मतवाली है। उसका हृदय प्रेम से उन्मत है। उसका प्रेम, हाट का सौदा नहीं। उसका प्रेम किसी वस्तु का भूखा नहीं है वह प्रेम के बदले प्रेम नहीं चाहती। उसे अभिमान है कि ऐसे पवित्रात्मा पुरुष की मूर्ति मेरे हृदय में प्रकाशमान है। यह अभिमान उसकी उन्मता का कारण है, उसके प्रेम का पुरस्कार है।

दूसरे मास में वृजरानी ने, बालाजी के स्वागत में एक प्रभावशाली कविता लिखी यह एक विलक्षण रचना थी। जब वह मुद्रित हुई तो विद्या जगत् विरजन की काव्य-प्रतिभा से परिचित होते हुए भी चमत्कृत हो गया। वह कल्पना-रूपी पक्षी, जो काव्य-गगन में वायुमण्डल से भी आगे निकल जाता था, अबकी तारा बनकर चमका। एक-एक शब्द आकाशवाणी की ज्योति से प्रकाशित था जिन लोगों ने यह कविता पढ़ी वे बालाजी के भक्त हो गए। कवि वह संपेरा है जिसकी पिटारी में साँपों के स्थान में हृदय बन्द होते हैं।

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