सदाबहार >> वरदान (उपन्यास) वरदान (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...
रानी– हां मैं उस हार के लिए गुलामी लिख देती।
चन्द्रकुंवरि– हमारे यहाँ (पति) तो भारत सभा के सभ्य बैठे हैं ढाई सौ रुपये लाख यत्न करके रख छोड़े थे, उन्हें यह कहकर उठा ले गए कि घोड़ा लेंगे। क्या भारत-सभा वाले बिना घोड़े के नहीं चलते?
रानी– कल ये लोग श्रेणी बांधकर मेरे घर के सामने से जा रहे थे, बड़े भले मालूम होते थे।
इतने ही में सेवती नवीन समाचार-पत्र ले आयी।
विरजन ने पूछा– कोई ताजा समाचार है?
सेवती– हां, बालाजी मानिकपुर आए हैं। एक अहीर ने अपनी पुत्री के विवाह का निमंत्रण भेजा था। उस पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्यों सहित रात को चलकर मानिकपुर पहुंचे। अहीरों ने बड़े उत्साह और समारोह के साथ उनका स्वागत किया है और सबने मिलकर पांच सौ गौएं भेंट दी हैं। बालाजी ने वधू को आशीर्वाद दिया और दूल्हे को हृदय से लगाया। पांच अहीर भारत सभा के सदस्य नियत हुए।
विरजन– बड़े अच्छे समाचार हैं। माधवी, इसे काट के रख लेना। और कुछ?
सेवती– पटना के पासियों ने एक ठाकुरद्वारा बनवाया है वहाँ की भारतसभा ने बड़ी धूमधाम से उत्सव किया।
विरजन– पटना के लोग बडे उत्साह से कार्य कर रहे हैं।
चन्द्रकुँवरि– गडूरियां भी अब सिन्दूर लगायेंगी! पासी लोग ठाकुर द्वारे बनवायेंगे?
रुकमणी– क्यों, वे मनुष्य नहीं हैं? ईश्वर ने उन्हें नहीं बनाया। आप ही अपने स्वामी की पूजा करना जानती हैं?
चन्द्रकुँवरि– चलो, हटो, मुझे पासियों से मिलाती हो। यह मुझे अच्छा नहीं लगता।
रुक्मिणी– हाँ, तुम्हारा रंग गोरा है न? और वस्त्र-आभूषणों से सजी बहुत हो। बस इतना ही अन्तर है कि और कुछ?
चन्द्रकुँवरि– इतना ही अन्तर क्यों है? पृथ्वी आकाश से मिलाती हो? यह मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं कछवाहों के वंश में हूँ, कुछ खबर है?
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