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वरदान (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8670

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‘वरदान’ दो प्रेमियों की कथा है। ऐसे दो प्रेमी जो बचपन में साथ-साथ खेले...


विरजन– कुन्ती ने सूर्य को बुलाने के लिए कितनी तपस्या की थी!

सीता– बालाजी बड़े निष्ठुर हैं। मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं।

रुक्मिणी– जिसने संन्यास ले लिया, उसे घर– बार से क्या नाता?

चन्द्रकुँवरि– यहां आएंगे तो मैं मुख पर कह दूंगी कि महाशय, यह नखरे कहां सीखे?

रुक्मणी– महारानी। ऋषि-महात्माओं का तो शिष्टाचार किया करो जिह्वा क्या है कतरनी है।

चन्द्रकुँवरि– और क्या, कब तक सन्तोष करें जी! सब जगह जाते हैं, यहीं आते पैर थकते हैं।

विरजन– (मुस्कुराकर) अब बहुत शीघ्र दर्शन पाओगे। मुझे विश्वास है कि इस मास में वे अवश्य आयेंगे।

सीता– धन्य भाग्य कि दर्शन मिलेंगे। मैं तो जब उनका वृतांत पढ़ती हूं यही जी चाहता है कि पाऊं तो चरण पकड़कर घण्टों रोऊँ।

रुकमणी– ईश्वर ने उनके हाथों में बड़ा यश दिया। दारानगर की रानी साहिबा मर चुकी थीं। सांस टूट रही थी कि बालाजी को सूचना हुई। झट आ पहुंचे और क्षणमात्र में उठाकर बैठा दिया। हमारे मुंशीजी (पति) उन दिनों वहीं थे। कहते थे कि रानीजी ने कोश की कुंजी बालाजी के चरणों पर रख दी और कहा– ‘आप इसके स्वामी हैं’। बालाजी ने कहा– ‘मुझे धन की आवश्यकता नहीं। अपने राज्य में तीन सौ गौशालाएं खुलवा दीजिए’। मुख से निकलने की देर थी। आज दारानगर में दूध की नदी बहती है। ऐसा महात्मा कौन होगा।

चन्द्रकुवंरि– राजा नवलखा का तपेदिक उन्हीं की बूटियों से छूटा। सारे वैद्य डॉक्टर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगे, तो महारानी जी ने नौ लाख का मोतियों का हार उनके चरणों पर रख दिया। बालाजी ने उसकी ओर देखा तक नहीं।

रानी– कैसे रूखे मनुष्य हैं!

रुकमणी– हाँ, और क्या, उन्हें उचित था कि हार ले लेते...नहीं-नहीं कण्ठ में डाल लेते।

विरजन– नहीं, लेकर रानी को पहिना देते। क्यों सखी?

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