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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


फिर थोड़ी देर हम लोग बैठे रहे। मानो किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। इसी खाई को भरने के लिए मैंने सुझाया, खाना ही खा लिया जाए। वह भी हो गया और फिर हम लोग आग के पास बैठकर आग की ओर ताकते रहे। एक-दूसरे की ओर न ताकने के लिए कितनी अच्छी ओट थी वह आग!

लेकिन फिर भी धीरे-धीरे वह मौन बोझिल हो ही आया और उनकी अनदेखी करना असम्भव हो गया।

मैंने पूछा, 'आंटी, आपको ताश से भविष्य पढ़ना आता है?'

बुढ़िया ने कहा, 'नहीं योके! तुम पढ़ सकती हो?'

वहाँ से उठने का मौका पाते हुए मैंने कहा, 'मैं ताश लाती हूँ - आपका भविष्य पढ़ा जाए।'

बुढ़िया ने तनिक मुस्कुराकर कहा, 'मेरा भविष्य! वह पढ़ना क्या आसान काम है?'

मैंने कहा, 'सभी अपने भविष्य को बहुत अधिक दुर्ज्ञेय और जटिल मानते हैं। उसे जानना चाहने की उत्कंठा का ही यह दूसरा पहलू है - जितना ही जानना चाहते हैं उतना ही उसे दुरूह मानते हैं।'

बुढ़िया ने वैसे ही मुस्कुराते हुए कहा, 'नहीं, मेरे साथ यह बात शायद नहीं है। उस दृष्टि से तो मेरा भविष्य बहुत ही आसान है। कुछ भी जानने को नहीं है - न उत्कंठा है।'

'ऐसा कैसे हो सकता है ? अच्छा बताइए, आप क्या यह नहीं जानना चाहतीं कि अगले क्रिसमस पर आप कहाँ होंगी - कैसे होंगी?'

'नहीं, मैं तो जानती हूँ। मैं - यहीं हूँगी और - ऐसे ही हूँगी।'

मैं थोड़ी देर स्तब्ध रही। यों तो बुढ़िया की बात सच भी हो सकती है। वह यहीं ऐसे ही रहेगी, क्योंकि वर्षों से यहीं ऐसे ही रहती चली आयी है। हो सकता है कि हमेशा से यहीं रहती आयी हो, और हो सकता है कि हमेशा यहीं रहती चली जाए! इन्हीं पहाड़ों की तरह निरन्तर बदलती हुई, लेकिन अन्तहीन और आकांक्षाहीन!

मैंने फिर कहा, 'लेकिन और भी बहुत-से लोग हो सकते हैं।'

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