उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
बुढ़िया ने मेरी बात काटते हुए कहा, 'मैं अकेली हूँगी, योके। अगर यह जानती न होती तो शायद इस वर्ष भी अकेली न रही होती। मैं जान-बूझकर यहाँ अकेली रह गयी थी - तुम्हारा आना तो एक संयोग था जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।'
मैंने कहा, 'आंटी, आपको क्या मेरा यहाँ रहना कष्टकर लगा?' फिर थोड़ा हँसकर मैंने जोड़ दिया, 'अगर वैसा है तो मुझे दुख है, पर मेरी लाचारी है। यह तो मैं कह नहीं सकती कि मैं अभी चली जाती हूँ। वह मेरे बस का होता - '
बुढ़िया ने सहसा गम्भीर होकर कहा, 'कुछ भी किसी के बस का नहीं है, योके। एक ही बात हमारे बस की है - इस बात को पहचान लेना। इससे आगे हम कुछ नहीं जानते।'
मेरे भीतर फिर घोर विरोध उबल आया। इसको छिपाने के लिए मैं जल्दी से उठकर चली गयी। खोज में अनावश्यक देर लगाकर जब मैं ताश लेकर आयी और पत्ते बिछाने लगी, तो बुढ़िया चुपचाप मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक उसने मुझसे पूछा, 'योके, तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊँ?'
पत्ते मेरे हाथ से गिर गये और मैंने अचकचाकर पूछा, 'क्या - यह कैसी बात है, सेल्मा!' उसे आंटी कहना भी मैं भूल गयी।
उसने कहा, 'मैं बुरा नहीं मानती, योके, तुम्हारा वैसा चाहना ही स्वाभाविक है। मैं भी चाहती हूँ कि मर जाऊँ, पर मेरे चाहने की तो अब जरूरत नहीं है। मैं जानती हूँ कि बहुत दिन बाकी नहीं हैं।'
मैंने सँभलते हुए कहा, 'नहीं, आंटी, अभी ऐसी कौन-सी बात है - तुम तो अभी बहुत दिन - '
'तुम्हारा ऐसा कहना ही स्वाभाविक है - तुम्हें कहना ही चाहिए। लेकिन मैं जानती हूँ। और आज मैं इतनी खुश हूँ कि तुमसे कह ही दूँगी, जिससे कि कल तक यह बात तुम्हारे लिए पुरानी हो जाए - योके, मैं बीमार हूँ और मुझे मालूम है कि अगला वसन्त मुझे नहीं देखना है।'
थोड़ी देर बाद मैंने ताश के पत्ते जमीन से उठाये और यन्त्र की तरह - एक खास तौर से बेवकूफ यन्त्र की तरह - उन्हें फेंटती रही...
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