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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


वह लम्बा बेशऊर सन्नाटा ऐसा नहीं था जिसका क्रिसमस से पहले की रात से कोई सम्बन्ध जोड़ा जा सके। पर वह सारी स्थिति ही ऐसी विसंगत थी। देव-शिशु के आसन्न अवतरण का कोई आनन्द, कोई स्फूर्ति मुझमें नहीं थी। आसन्न कुछ लगता था तो दूसरा ही कुछ जिसे मैं देखना नहीं चाहती, जानना नहीं चाहती, नाम देना नहीं चाहती - पर छाती पर रखे हुए बोझ-सी एक ही बात बार-बार अपनी याद दिला जाती थी और गले की साँस गले में अटक जाती थी - कि वहाँ सेल्मा और योके के अलावा एक तीसरा भी है और वह अदृश्य तीसरा देव-शिशु नहीं है... और मानो उसी की धड़कन मैं वातावरण में सुन रही थी और इसलिए उठ नहीं पा रही थी - मुझे लगता था कि उससे वह सहसा मूर्त हो जाएगा और तब सेल्मा भी जान लेगी कि उसे मैंने बुलाया है।...

पर उसे और सहा भी नहीं जा सका। जब मैंने बलात् अपने को उठाते हुए कहा, 'अब आराम करो, सेल्मा। गुडनाइट।'

सेल्मा ने कुछ चौंककर मेरी ओर देखा। फिर जो भी कहने जा रही थी उसे रोककर उसने कहा, 'क्रिसमस मुबारक, योके।'

मैंने अपनी साधारण 'गुडनाइट' पर कुछ सकपकाते हुए उसे धो डालने के लिए कहा, 'क्रिसमस मुबारक सेल्मा। बहुत-से क्रिसमस।' फिर थोड़ा रुककर, 'चाहिए तो था बैठकर गाना, पर...'

उसने मुझे दिलासा देते हुए कहा, 'पर कोई बात नहीं, वह मौन में भी उतनी ही सहजता से आता है - गाना जरूरी नहीं है।'

मैंने फिर जल्दी से कहा, 'क्रिसमस मुबारक!' और जल्दी से चली आयी।

और अब आधी रात।

'वह मौन में भी उतनी ही सहजता से आता है।' वह कौन ? वह - वह... वही जो सेल्मा और मेरे बीच तीसरा आया था और वहाँ मौजूद था - अनाहूत...

नहीं, नहीं, नहीं! जो भी आता है, जो भी आएगा, उसे उधर ही रहने देना होगा...

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