उपन्यास >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
|
7 पाठकों को प्रिय 86 पाठक हैं |
अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना
कि एकाएक मैंने जाना कि बुढ़िया की आँखें खुली हैं। बिना हिले-डुले अनायास भाव से वे खुल गयी थीं और भरपूर मेरी आँखों में झाँक रही थीं। मैंने सकपकाकर आँखें नीची कर लीं।
बुढ़िया ने मानो मुझे असमंजस से उबारते हुए कहा, 'मैं सो गयी थी। मुझे माफ करना।' और उसने हाथ का पत्ता खेल दिया।
बात इतनी ही थी। लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा कि वह सोयी हुई नहीं थी। नींद में - चाहे कितनी भी ही नींद में - स्नायु कुछ-न-कुछ ढीले होते ही हैं और उनकी शिथिलता पहचानी जा सकती है। लेकिन बुढ़िया में कहीं भी उसका कोई लक्षण नहीं दीखा था - वह मानो एकाएक कहीं गायब हो गयी थी और फिर लौट आयी थी - और उसमें मैं औचक पकड़ी गयी थी।
20 दिसम्बर :
आज फिर वैसा ही हुआ। बुढ़िया ने एकाएक आँखें बन्द कर लीं और मुझे लगा कि वह सो गयी है। लेकिन मैं दुबारा पकड़ी जाने को तैयार नहीं थी। मैंने उसके चेहरे पर आँखें नहीं टिकायीं, कनखियों से ही बीच-बीच में देखती रही। लेकिन मुझे लगा कि आंटी का चेहरा सफेद पड़ गया है। मुझे यह भी लगा कि अगर मैं साहस करके आँख उठाकर देख सकूँ तो पाऊँगी कि उसकी पलकें सचमुच पारदर्शी हैं - बल्कि शायद सारी त्वचा ही पारदर्शी है।
जब देर तक वह नहीं जागी तो मैंने हिम्मत करके आँखों से, नीचे तक के उसके चेहरे की ओर देखा। चेहरा निश्चल ही था, लेकिन मुझे लगा कि होंठ न केवल शिथिल ही हुए हैं बल्कि थोड़ा और कस गये हैं। और गले में एक ओर रह-रहकर एक स्पन्दन भी होता जान पड़ा - मानो शिराएँ खिंचती हैं और फिर ढीली हो जाती हैं, फिर खिंचती हैं और फिर ढीली हो जाती हैं। यह तो शायद नींद नहीं है; और बोलना उसमें बाधा देना भी नहीं होगा... मैंने एकाएक पूछा, 'तबीयत तो ठीक है, आंटी?'
आंटी ने बिना हिले-डुले आँखें खोलकर कहा, 'हाँ, मैं बिलकुल ठीक हूँ - यों ही थोड़ी शिथिलता आ जाती है।'
मैं चुप रही। थोड़ी देर बाद आंटी थोड़ा हिली और फिर कुर्सी में ही बैठक बदलकर पूरी तरह जाग गयी।
|