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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक मित्र ने आज सुबह खबर दी कि एक संन्यासी यहाँ आए हुए थे, वे बहुत नाराज हो गए। और वे कल रात यहाँ आकर दस-पांच मित्रों को लेकर कुछ रामधुन करने वाले थे, ताकि यहाँ मीटिंग न हो सके। मैंने कहा, उनसे कहो कि बड़ी गलती हो गई। आज वे आ जाएं, भजन करते हैं, उसकी जगह रामधुन हो जाएगी। उसमें हर्जा क्या है इसमें मीटिंग में बाधा क्या पड़ेगी और थोड़ा आनंद आ जाएगा। और वे नाराज हो गए हैं, तो फिर जिन मुनि शांतिनाथ की मैं बात कर रहा था--हमें खयाल भी नहीं था कि वे यहाँ हो सकते हैं।

नाराज होने की क्या बात है। और अगर वे यहीं खड़े होकर नाराजगी जाहिर कर देते तो मेरा तो बड़ा हित हो जाता। हमें तो प्रमाण मिल जाता, जो मैं कह रहा था, वह बात बिना प्रमाण के न रह जाती, प्रूफ सामने खड़ा हो जाता।

अगर कोई संन्यासी शत्रु हो सकता है मेरी बातें सुनकर तो वह समझ ले कि वह मेरी बातें सिद्ध कर रहा है। संन्यासी और शत्रुता का क्या संबंध? संन्यासी के मन में और शत्रुता का क्या सवाल और संन्यासी के मन में भी शत्रुता हो तो ऐसे संन्यासी पर दया नहीं की जा सकती। ऐसे संन्यासी को जमीन से विदा करना ही होगा। तो ही हम उस संन्यासी को जन्म दे सकेंगे, जिसके हृदय में शत्रुता नहीं होती, प्रेम होता है।

अगर चोट लगती हो, इसमें मेरी भूल नहीं है। इसमें आपका चोट खाने को तैयार मन ही भूल कर रहा है। इसमें मैं क्या करूं अगर समझ हो तो वह आदमी देख लेगा इस तथ्य को कि जो मैंने कहा, वह उसके भीतर घटित हो रहा है। और तब उसे यह सच्चाई दिखाई पड़ जाएगी कि संन्यास वस्त्र बदल लेने का नाम नहीं है। और तब हो सकता है एक रिविलेशन, एक उसके भीतर एक आलोक हो जाए। फेंक दे वह वस्त्र और पहली दफे संन्यासी हो जाए।

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