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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


अर्जुन की भाँति का उलहाना सुन मैं अवाक् रह गया तथा अपने मन की बात प्रकट हुई जान झेंप भी गया। इस पर भी मैंने कहा, ‘‘अर्जुन की बात तो मैं जानता नहीं। मैं समझता हूँ कि कृष्णार्जुन संवाद महाभारत के काल्पनिक अंश में से है। इस कारण स्वयं को वैसा नहीं मानता। मेरा कहना तो यह है कि कौन ठीक था और कौन गलत? कौन श्रेष्ठा था और कौन दुष्ट? कौन अधिकारी था और कौन अनधिकारी, इन बातों को मैं नहीं समझता। एक सत्य मैं जानता और समझता हूँ। ‘अहिंसा परमो धर्मः’ इतने मानवों की हत्या हो गई। यह घोर पाप हुआ था। इसके होने से किसी संस्कृति की जीत हुई अथवा हार हुई, कुछ बड़े महत्व की बात नहीं है।’’

‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि आपके मस्तिष्क में जैन-धर्म अथवा गाँधीवाद ने आधिपत्य जमा रखा है। जैन-धर्म का एक विशेष सिद्धान्त है ‘स्यात्वाद्’। इसका अभिप्राय यह है कि वे सदा यह अथवा वह के संशय में पड़े रहते हैं। वे किसी बात को निर्णय से नहीं बता सकते कि यह ठीक है अथवा गलत। ऐसी संशयामत्क बुद्धि वेदानुगामी नहीं रखते।

‘‘वे तो स्थिर बुद्धि के होते हैं। निर्णय करते समय वे शास्त्र में लिखे सिद्धान्तों की कसौटी पर परख लेते हैं। और तत्पश्चात् निश्चयात्मक बुद्धि से कार्य करते हैं।’’

‘‘क्या शास्त्र की कसौटी में कोई दोष नहीं?’’

‘‘अनुभव और युक्ति से तो शास्त्र के सिद्धान्त निर्भ्रान्त प्रतीत होते हैं। देखिये, मुख्य सिद्धान्त ये हैं–एक, चरित्रवान वह है जो यम और नियमों का पालन करता है। दूसरा, चरित्रवानों को निर्भय करना परम कर्तव्य है। इस निर्णय में दुष्टों का विनाश आवश्यक है। तीसरे ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतां’ के लिए बहुत कुछ त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। इस त्याग और तपस्या में प्रायः अच्छे लोगों में से कईयों को आत्म-समर्पण करना पड़ता है। यही कुछ तो महाभारत युद्ध में हुआ था।’’

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