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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

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मेरे लिए रामायण, महाभारत और पुराणों की यह नवीन व्याख्या थी। माणिकलालजी का कहना था कि ये इतिहास-ग्रन्थ नहीं हैं। न ही ये धर्म-ग्रन्थ हैं। ये तो ऐतिहासिक उपन्यासों की भाँति इतिहास की पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कथाएँ हैं। इनमें ऐतिहासिक तथ्य भी हैं और कल्पना भी। इस पर भी ये किसी उद्देश्य से लिखे गये हैं। वह उद्देश्य है भारतीय और अभारतीय संस्कृतियों में संघर्ष के विषय में लिखना और उनमें अन्तर तथा संघर्ष का परिणाम बताना।

उद्देश्य तो अवश्य ही महान् था। यदि यह सत्य है कि उस काल में भी सांस्कृतिक संघर्ष चलते थे तो उस संघर्ष के विषय में लिखना वास्तव में एक प्रशंसनीय बात है। इस पर भी मुझको पूर्ण रूप से इस विवेचना से सन्तोष नहीं हुआ था।

मैं इस विषय को आगे चलाना नहीं चाहता था। महाभारत युद्ध का जो विनाशकारी परिणाम इस पुस्तक में लिखा गया है वह अति भयंकर है। अठारह अक्षौहिणी सेना की मृत्यु के ग्रास में उतर जाना किसी प्रकार से भी साधारण घटना नहीं कही जा सकती। महाभारत की गणना के अनुसार पैदल सैनिकों की संख्या जो इस युद्ध में मरे, साढ़े-उनतीस लाख के लगभग थी और पूर्ण जन-हत्या तो पचास लाख से कम नहीं आँकी जा सकती। इसी मात्रा में स्त्रियाँ विधवा हुईं और परिणामस्वरूप जो अव्यवस्था और दुराचार फैला वह अवर्णनीय है।

मैं गम्भीर हो बैठा रह गया। माणिकलाल अभी भी मुस्करा रहा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वह मेरे हृदय में उठ रहे विचारों को समझ रहा था। मैं अभी अपने मन की बात कहने अथवा न कहने का विचार कर ही रहा था कि वह बोल उठा, ‘‘अर्जुन की भाँति आपके मन में भी संशय उत्पन्न हो गया है न?’’ पचास लाख युवकों की हत्या हो गई। घोर अनर्थ हो गया और ऋषि ने इसको ‘जय’ का नाम दे दिया। यह ‘जय’ कैसे हुई? यही विचार कर रहे हैं न आप?’’

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