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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘देवयानि चुपचाप आश्रम में चली गई और उसने अपने पिता को यह अपमान की घटना नहीं बताई। अब, जब वृषपर्वा आचार्यजी को मनाने के लिए कामभोज में आया और शुक्राचार्य पुनः दानवों से मैत्री कर लेने पर विचार करने लगे तो देवयानी ने उस समय इस अपमानजनक घटना का वर्णन कर दिया।’’

‘‘इस पर पिता-पुत्री ने दानव-देश लौटने और उनकी रक्षा करने के लिए विषय पर दो शर्तें रखीं। एक तो यह कि आचार्यजी कामभोज और दानव-देश दोनों स्थानों पर रहेंगे। वे पक्ष तो दानवों का लेंगे किन्तु रहेंगे अपनी इच्छानुसार। दूसरी शर्त लगाई गई कि शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों सहित देवयानी की दासी बनकर रहे।’’

‘‘वृषपर्वा यह दूसरी शर्त कभी न मानता, यदि उस समय देवताओं द्वारा आक्रमण की विभीषिका उसके सम्मुख न होती। दानव कुछ देव-पत्नियों को देवलोक से उठा लाये थे और देवता कच की संजीवनी विद्या सीख आने के पश्चात् अपने को उन देव-पत्नियों को छुड़ा लाने में सबल पाते थे। अतः वह दानव-देश पर आक्रमण करने की तैयारी में संलग्न थे। कश्मीर तो पहले ही देवताओं के अधीन था। कामभोज के ययाति की इन्द्र से सन्धि थी। अतः देवता अब बहुत सुदृढ़ स्थिति में थे और दानवों से अपनी हानि का बदला लेने का विचार कर रहे थे।’’

‘‘इस परिस्थिति में वृषपर्वा ने शर्मिष्ठा को समझा-बुझाकर देवयानि का दासीत्व स्वीकार करा लिया। इस प्रकार वृषपर्वा और शुक्राचार्य से सुलह हो गई। शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ शुक्राचार्य के आश्रम में आ गई और देवयानी की सेवा में रहने लगी।’’

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