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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘इन लोगों ने विद्या पढ़ी, सभ्य और सुशील आचरण ग्रहण किया; विद्याध्ययन भी किया, परन्तु अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ा। दुष्यन्त के पिता का नाम इलिल था। कोई उसको ईलिल भी कहते थे। इलिल शब्द भारतीय नहीं। वह कन्धार के समीप किसी स्थान का राजा था। उसके दुष्यन्त नाम का पुत्र हुआ। वह तेजस्वी शासक था। उसी के विषय में व्यासजी लिख गये हैं कि दुष्यन्त ने पुरु के वंश का नाम विख्यात किया। वह वीर्यवान था और चारों समुद्रों से घिरी समूची पृथ्वी का पालक था।’’

‘‘एक बार दुष्यन्त वन में आखेट के लिए गया तो मार्ग भूलकर कण्व ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। ऋषि कहीं गये हुए थे। वहाँ उनकी लड़की शकुन्तला थी। उसने दुष्यन्त का अतिथि-सत्कार किया। दुष्यन्त उस पर मोहित हो गया। यों तो शकुन्तला भी महाराजा दुष्यन्त के रूप पर मोहित हो गई थी, परन्तु नारी-स्वभाव के कारण संकोच से अपने मन की बात कह नहीं सकती थी। दुष्यन्त दूसरी प्रकृति का व्यक्ति था। उसने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘हे हाथी की सूँड के समान जाँघों वाली मतवाली सुन्दरी, मेरी बात सुनो। मैं राजर्षि पुरु के वंश में उत्पन्न राजा दुष्यन्त हूँ। मैं तुमको अपनी पत्नी बनाने के लिए वरण करना चाहता हूँ। मेरा अनुमान है कि तुम ऋषिपुत्री नहीं हो, क्योंकि मेरा मन कभी किसी क्षत्रिय-कन्या के अतिरिक्त दूसरे वर्ण की स्त्री की ओर नहीं गया।१
१. ‘पौरवाणां वंशकरो दुष्यन्तो नाम वीर्यवान्,
पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम ।।’ आदिपर्व, ६८-३

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