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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘फिर दुष्यन्त ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा भक्त हूँ, तुम्हारी सेवा चाहता हूँ। तुम मुझको स्वीकार करो। विशाल लोचने! मेरा राज्य भोगो। मेरे प्रति अन्यथा विचार न करो, अर्थात् मुझको पराया न जानो।२
२. ‘श्रृण में नागनासोरु वतनं मत्तकाशिनी।,
राजर्षेरन्वये जातः पूरोरस्मि विशेषतः
वृणे त्वामद्य सुश्रोणि दुष्यन्तों वरवर्णिनी
न मेऽन्यत्र क्षत्रियायां मनो जातु प्रवर्तते।
ऋषिपुत्रीषु चान्यासु नावर्णासु परारु वा।’ आदिपर्व, ७१-१३ (२)
भजे त्वामायता पांगि भक्तं भजितुमर्हसि,
भुंक्ष्व राज्यं विशालक्षि बुद्धि मा त्वन्मथा कृथाः। आ प ७१-१३(६)

‘‘इस कामातुर राजा ने आश्रम में एक सुन्दर लड़की को अकेला देख उसको फुसलाने का यत्न किया। शकुन्तला ने कहा भी कि महाराज, मैं तपस्वी, धृतिमान्, धर्मज्ञ महात्मा भगवान् कण्व की पुत्री मानी जाती हूँ। राजेन्द्र! मैं परतन्त्र हूँ, कश्यपनन्दन कण्ड मेरे गुरु भी हैं और पिता भी। उन्हीं से आप अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए प्रार्थना करें। आपको अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए।’’

‘‘इस पर दुष्यन्त ने उसको भ्रष्ट करने के लिए प्रथम युक्ति दी। दुष्यन्त ने कहा, ‘महाभागे! कण्व तो ब्रह्मचारी हैं। तुम उनकी पुत्री नहीं हो सकतीं। अतः उनसे पूछने की आवश्यकता ही नहीं।’’

‘‘नहीं श्रीमान्!’ शकुन्तला ने कहा, ‘जहाँ शरीर बनाने वाला पिता होता है वहाँ इसके पालन करने वाला और इसको अभयदान देने वाला भी पिता कहलाता है।’’

‘‘तुम उनकी सन्तान नहीं हो, वे तुम्हारे केवल पालन करने वाले है।’’

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