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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं वैद्यजी! इसमें नीच अथवा श्रेष्ठ का प्रश्न नहीं। मैं आपको अपना अनुभव बताता हूँ कि चन्द्रवंशी प्रायः शूरवीर, बलवान और नीतिज्ञ रहे हैं। उनमें कमी केवल यही रही है कि स्त्रियों के प्रति अपना कर्त्तव्य-पालन नहीं करते थे। यही उनकी संस्कृति का अंग था कि वे विषय-वासना में बह जाते थे और अपना कर्त्तव्य भी भूल जाते थे। देखिए, ययाति का देवयानी को छोड़कर उसकी दासी शर्मिष्ठा से सन्तान उत्पन्न करना, और फिर अपने विषय भोग के लिए अपने पुत्र का यौवन लेना इत्यादि बातें यह प्रकट करती है कि इनमें स्त्री सम्भोग किसी प्रकार भी उत्कृष्ट और पवित्र किया नहीं मानी जाती थी, जैसी कि भारतीयता के मानने वालों में थी।’’

‘‘दुष्यन्त ने तो शकुन्तला को डाँट-फटकार कर निकाल ही दिया था, परन्तु कण्व ऋषि के कारण अन्य देवताओं, ऋषियों और जन-साधारण के द्वारा विवश किए जाने पर उसने अपने लड़के को युवराज बना लिया। परन्तु राजा द्वारा किये अपमान से कुँठित हो शकुन्तला उसके घर नहीं रही। वह वहाँ से चली गई।’’

‘‘ये लोग उनके पूर्वज थे, जिनका समूल नाश करने के लिए आपको आज से पाँच सहस्त्र वर्ष पूर्व अवतार लेना पड़ा था। ‘जय’ युद्ध एक व्यर्थ की हत्या करने वाली घटना नहीं हैं। ऐसे लोग एक भारी संख्या में उत्पन्न हो गए और उन लोगों को राज्य तथा विद्वानों का संरक्षण प्राप्त हो चुका था। इसी कारण तो महाभारत का युद्ध हुआ और फिर इन लोगों की समाप्ति हुई। इनकी संस्कृति मिटी और इनका सकल वैभव समाप्त हुआ।’’

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