उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘देखिए महाराज!’’ मैंने कहा, ‘‘आपका अब एक अति सुन्दर कन्या से विवाह होने वाला है। आप विवाह कर बम्बई में अपना कारोबार चलाएँगे। अपने-जैसी ही मेधावी सन्तान उत्पन्न करेंगे और फिर वे आपकी भाँति ही विवाह कर सन्तान उत्पन्न करेंगे। मैं समझता हूँ कि यदि आप ढाई सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहे, जैसा कि आप बता रहे हैं, तो आपके मरने से पूर्व आपके परिवार में एक सहस्त्र से अधिक सदस्य हो जायेंगे। यह एक महान् कार्य आप करेंगे। इतना तो निस्ससंदेह है ही। शेष देश, काल और परिस्थिति निर्णय करेगी। मैं, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, तो अपने को इस कलियुग में पुनः सत्युग लाने में सर्वथा अशक्त पाता है। इस कारण मैं इस संसार से उदासीन होता जाता हूँ।’’
‘‘यह भविष्य में देखने की बात है। मैं भविष्यवाणी करना नहीं चाहता। इस पर भी मुझको आपका मस्तक देखकर कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि आप निकट भविष्य में एक विशेष प्रकार का कार्य करने वाले हैं।’’
‘‘मैं तो आपसे मिलता रहूँगा। यदि मैं अपना वह कार्य जो भारत-युद्ध के समय मुझको करने को मिला था, भी करता रहूँ तो मैं समझता हूँ कि मैं मानव को उस गर्त में से, जिसमें वह पड़ा है, निकालने में कुछ तो यत्न कर ही सकूँगा।
‘‘आप कदाचित् नहीं जानते कि मैंने भारत-युद्ध में एक अति आवश्यक कार्य सम्पन्न किया था। मैंने उसमें शस्त्र तो छुआ तक नहीं था, परन्तु युद्ध और युद्धपूर्व की नीति को कोई बात ऐसी नहीं हुई जिसको मैं नहीं जानता था और जिसमें मैंने कुछ-न-कुछ प्रेरणा नहीं दी।’’
‘‘मैं एक दिन अपने पिता ऋषि गवल्गणजी के समीप बैठा उनसे देश और राष्ट्र की परिस्थिति पर विचार कर रहा था कि वे एकाएक ‘ट्रान्स’ अवस्था में (अन्तर्धान) हो गए। मैं उनको उस अवस्था में देख उनके मुख से कोई भविष्यवाणी सुनने की आशा करने लगा था।’’
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