उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
तो क्या तोपे, टैंक, हवाई जहाज़ अथवा हाईड्रोजन बम बना लेने से हम पहले से उन्नत हो गए हैं? इससे तो केवल यह हुआ कि जहाँ कच को मारने के लिए वृषपर्वा को लाठियों से अथवा पत्थरों से काम लेना पड़ा होगा, वहाँ आज स्टेनगन अथवा मशीनगन से काम लिया जाता है। किन्तु मन की भावना तो वही है।
मैंने अपने मन की बात माणिकलाल को बता दी। वह कहने लगा, ‘‘आप ठीक कहते हैं। वास्तव में मनुष्य अपने भीतर के पशुपन के बोझ से लुढ़ककर भूमि पर बार-बार गिरता है। इस पर भी जब-जब वह पृथ्वी पर पशुओं की भाँति विचरने लगता है, तब भगवान् की प्रेरणा से संघर्ष होता है और उस संघर्ष में मानव को धरातल से उठाने का यत्न किया जाता है। जब संघर्ष इसको उठाकर आकाश में उड़ने के योग्य बना देता है, तब वह संघर्ष धर्मयुद्ध के नाम से विख्यात हो जाता है। ऐसा ही एक युद्ध, भगवान! आपने किया था?’’
‘‘परन्तु उसका लाभ तो कुछ नहीं हुआ न?’’
‘‘लाभ तो हुआ था। भारत-युद्ध के पश्चात् दो सहस्त्र वर्ष पर्यंन्त मानव आकाश में उड़ता रहा था। उस काल में इसने ज्ञान-विज्ञान का वह भंडार एकत्र किया था, जो आज इस वैज्ञानिक उन्नति के युग में भी अपनी उपमा नहीं रखता।
‘‘खैर, छोड़िये इस बात को। देखिए, अब हम दिल्ली के समीप आते-जाते हैं और आप गाड़ी से उतर जाइयेगा। मैं आपकी संगत में रहना चाहता हूँ। मुझको यह बताया गया है कि मैं इस संसार में विशेष प्रयोजन से आया हूँ। मैं उस प्रयोजन को समझना चाहता हूँ और उसमें आपसे सहायता तथा सहयोग चाहता हूँ।’’
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