उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘नगर में दुकाने नहीं थीं। मकान-ही-मकान थे। मैंने पहले दिन ही ये सब बातें देख ली थीं। परन्तु इसका अर्थ मुझे वहाँ कई दिन रहने के पश्चात् विदित हुआ।’’
‘‘मैं अभी अपनी अवस्था और नगर के विषय पर विचार कर ही रहा था कि एक सेवक दर्शकों की भीड़ में आवाज़ देता सुनाई दिया। वह मेरा नाम लेकर पुकार रहा था–‘संजय कौन हैं, संजय कौन हैं?’’
‘‘मैंने अपने स्थान से बढ़कर कहा, ‘मैं हूँ।’’
‘‘उसने कहा, ‘सुरराज आपको बुला रहे हैं।’’
‘‘मुझे अपने-आपको इतनी जल्दी बुलाये जाने पर आश्चर्य हुआ। अभी लोग जो मुझसे पहले आये थे। प्रतीक्षा में खड़े थे कि मैं सेवक के साथ भीतर चला गया।’’
‘‘राजप्रसाद में प्रवेश करते ही बाहर का सोया हुआ वायुमण्डल जाग्रत और सजीव दिखाई दिया। वहाँ भाग-दौड़ हो रही थी। बीसियों सेवक-सेविकाएँ किसी प्रयोजन से इधर-उधर आ-जा रहे थे। पूर्ण वातावरण में जीवन दिखाई देने लगा था। द्वार से चलकर महाराज के आगार तक पहुँचते-पहुँचते कई लोगों से टकराता-टकराता बचा। प्रत्येक बार सामने से आने वाला व्यक्ति पुरुष अथवा स्त्री ‘क्षमा’ माँगता और अपने काम पर चला जाता।’’
‘‘मेरे साथ चलने वाला सेवक कहने लगा, ‘युवक! तनिक सावधान होकर चलना चाहिए। व्यर्थ में दूसरों को कार्य पर जाने से रोकना उचित नहीं।’’
‘‘मैं इस जीवन को देख सतर्क हो गया और लम्बे-लम्बे पग उठाता हुआ उसके साथ चलने लगा। कई प्रांगणों से गुज़रकर और कई पक्के आवुत मार्ग पर चलते हुए, सेवक मुझको एक आगार के सम्मुख खड़ा कर बोला, यहाँ ठहरिये, मैं आपके आने की सूचना दे दूँ।’’
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