उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वे लोग ऊनी अथवा किसी अन्य प्रकार के वस्त्र जो किसी पेड़ की छाल के पतीत होते थे, पहने हुए थे। वस्त्र देखने में सुन्दर और शरीर ढाँपने वाले थे। उनके हाथ, मुख और पाँव के अतिरिक्त शरीर का अन्य कोई भाग नग्न नहीं दिखाई देता था। वे प्रायः सिर से नंगे थे, परन्तु प्रकृति ने उनके सिर पर इतने घने और काले बाल दिये थे कि उनको नंगा कहना उचित नहीं। पुरुष और स्त्रियाँ सभी लम्बे बाल रखे हुए थे। पुरुषों के बाल प्रायः कुण्डलों में कन्धों तक गिरे हुए होते थे और स्त्रियाँ तो वेणी बाँधती थी और वेणी पर पुष्प-मालाएँ लिपटी होती थी। बहुत-सी गले और भुजाओं में भी पुष्प-मालाएँ लपेटे हुए थीं।’’
‘‘प्रायः स्त्रियाँ लम्बी और पुष्ट, पीन नितम्बिनी और पीन वक्षोजों वाली होती थी। सब-की-सब सुन्दर और ओजमय थीं। देव कान्याएँ बहुत कम देखी गई थीं। उस नगरी में बालक नहीं थे। एक बात विशेष थी कि सब ऐसे भ्रमण कर रहे थे जैसे किसी को कुछ काम ही न हो। मार्ग-तट पर प्रायः झुण्ड-के-झुण्ड स्त्री-पुरुष खड़े बात करते देखे जा सकते थे।’’
‘‘मैं तो इस देवपुरी को इस प्रकार देख रहा था जैसे बम्बई अथवा कलकत्ता में पहली बार जाने पर कोई यात्री विस्मय में देखने लगता है। अन्तर यह था कि आजकल के बड़े नगरों में तो लोग भाग-दौड़ करते देखे जाते हैं। किसी के पास तो मोटर के नीचे आ मरते हुए व्यक्ति को भी देखने का अवकाश नहीं होता। किन्तु वहाँ उस काल में किसी के पास कुछ काम ही नहीं प्रतीत होता था। सब निष्प्रयोजन, निरुद्देश्य घूमते प्रतीत होते थे।’’
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