उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैं एक अन्य व्यक्ति से पूछने लगा, ‘‘आप कहाँ के रहने वाले हैं?’’
‘‘उसने कहा, मैं दानवाधिपति कपीश राजदूत हूँ। राज्यकार्य से ही आया हूँ। मैंने अपना नाम और काम लिखकर भीतर दे दिया है।’’
‘‘इतने बड़े-बड़े और आवश्यक कार्य से आये हुए दर्शकों की उपस्थिति में अपने को शीघ्र भेंट प्राप्त होने की मुझे आशा नहीं थी। इस पर भी मैं पिताजी की आज्ञा से वहाँ आया था और अब भेंट किये बिना वहाँ से लौट जाना तो विचार में भी नहीं आता था। चिन्ता केवल इस बात की थी कि कुछ दिन अमरावती में ठहरने के लिए स्थान प्राप्त हो।’’
‘‘अमरावती, पहाड़ की ऊँचाई पर, एक पठार पर बसा हुआ नगर था। कई-कई छतों के मकान थे। और एक-एक मकान में दो-दो सौ परिवार तक रहते थे। देवता, वहाँ के रहने वाले, सुन्दर, सबल, बुद्धिशील और ज्ञानवान लोग थे। सब प्रायः प्रसन्न वदन और अपनी अवस्था पर संतुष्ट प्रतीत होते थे। ऐसा प्रतीत होता था कि केवल उनके, जो किसी राज्य-कार्य पर लगे हों, अन्य कोई आवश्यक कार्य नहीं कर रहा था।’’
‘‘नगर-द्वार पर मुझसे मेरा परिचय पूछकर लिखा लिया गया था। उसके बाद मुझको राजप्रसाद का मार्ग बता दिया गया था। मार्ग में मैंने सैकड़ों देवताओं को देवांगनाओं के साथ स्वेच्छा से निष्प्रयोजन भ्रमण करते देखा था। वे लोग मुझको अथवा किसी भी परदेशी को देख चलते-चलते खड़े हो जाते थे और परस्पर बातें करने लग जाते थे। देवांगनाएँ प्रायः सुन्दर थी और उनका मेरी ओर देख कर मुस्कराना और हँसना अति प्रिय प्रतीत होता था।’’
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