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धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग

ज्ञानयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9578

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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन


ज्ञान मतवादविहीन है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह मतों से घृणा करता है। इसका अर्थ सिर्फ यह है कि (ज्ञान द्वारा) मतों से परे और ऊपर की स्थिति को प्राप्त कर लिया गया है। ज्ञानी विनाश करने की इच्छा नहीं रखता अपितु सभी की सहायता करता है। जिस प्रकार सभी नदियाँ अपना जल सागर में प्रवाहित करती हैं और उससे एकीभूत हो जाती हैं, उसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों से ज्ञान की उपलब्धि होनी चाहिए और उन्हें एक हो जाना चाहिए।

प्रत्येक वस्तु की सत्यता ब्रह्म पर निर्भर है और इस सत्य की यथार्थत: उपलब्धि करने पर ही हम किसी सत्य को प्राप्त कर पाते हैं। जब हम कोई भेद-दर्शन नहीं करते, तभी हम अनुभव करते हैं कि, 'मैं और मेरे पिता एक हैं'।
भगवद्रीता में कृष्ण ने ज्ञान का अतीव स्पष्ट उपदेश किया है। यह महान् काव्य समस्त भारतीय साहित्य का मुकुटमणि माना जाता है। यह वेदों पर एक प्रकार का भाष्य है। वह हमें दिखाता है कि आध्यात्मिक संग्राम इसी जीवन में लड़ा जाना चाहिए; अत: हमें उससे भागना नहीं चाहिए, अपितु उसको विवश करना चाहिए कि जो कुछ उसमें है, वह उसे हमें प्रदान करे। चूंकि गीता उच्चतर वस्तुओं के लिए इस संघर्ष का प्रतिरूप है, इसलिए उसके दृश्य को रणक्षेत्र के मध्य प्रस्तुत करना अतीव काव्यमय हो गया है। विरोधी सेनाओं में से एक के नेता अर्जुन के सारथी के वेष में कृष्ण उसे दुःखी न होने और मृत्यु से न डरने की प्रेरणा देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि वह वस्तुत: अमर है, और मनुष्य के प्रकृत स्वरूप में किसी भी विकारशील वस्तु का स्थान नहीं है। अध्याय के बाद अध्याय में कृष्ण दर्शन और धर्म की उच्च शिक्षा अर्जुन को देते हैं। यही शिक्षाएँ इस काव्य को इतना अद्भुत बनाती हैं, वस्तुत: समस्त वेदान्त दर्शन उसमें समाविष्ट है। वेदों का उपदेश है कि आत्मा असीम है और किसी प्रकार भी शरीर की मृत्यु से प्रभावित नहीं होती; आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केन्द्र किसी देह में होता है। मृत्यु (तथाकथित) केवल इस केन्द्र का परिवर्तन है। ईश्वर एक ऐसा वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केन्द्र सर्वत्र है और जब हम देह के संकीर्ण केन्द्र से निकल सकेंगे, हम ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे जो हमारा वास्तविक आत्मा है। वर्तमान, भूत और भविष्य के बीच एक सीमा-रेखा मात्र है; अत: हम विवेकपूर्वक यह नहीं कह सकते कि हम केवल वर्तमान की ही चिन्ता करते हैं, क्योंकि भूत और भविष्य से भिन्न उसका कोई अस्तित्व नहीं है। वे सब एक पूर्ण हैं; काल की कल्पना तो एक उपाधि मात्र है, जिसे हमारी विचार-शक्ति ने हम पर आरोपित किया है।

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