धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
ज्ञानी को सभी नाम-रूपों से छुटकारा पाना ही है। उसे सभी नियमों और शास्त्रों से परे होना है एवं स्वयं अपना शास्त्र बनना है। नाम-रूप के बन्धन से ही हम जीव भाव को प्राप्त होते और मरते हैं। तथापि ज्ञानी को कभी उसे निन्दनीय न समझना चाहिए, जो अब भी नाम-रूप के परे नहीं हो सका है। उसे कभी दूसरे के विषय में ऐसा सोचना भी न चाहिए कि 'मैं तुझसे अधिक पवित्र हूँ।'
सच्चे ज्ञानयोगी के ये लक्षण हैं –
(२) उसकी सभी इन्द्रियाँ पूर्ण नियन्त्रण में रहती हैं, वह चुपचाप सभी कष्ट सहन कर लेता है। उन्मुक्त आकाश के नीचे नग्न वसुन्धरा पर उसकी शय्या हो या वह राजमहल में निवास करे, वह समानरूपेण सन्तुष्ट रहता है। वह किसी कष्ट का परिहार नहीं करता, वरन् उसे बरदास्त और सहन कर लेता है। वह आत्मा के अतिरिक्त और सभी वस्तु छोड़ देता है।
(३) वह जानता है कि एक ब्रह्म को छोड़कर अन्य सब मिथ्या है।
(४) उसे मुक्ति की तीव्र इच्छा होती है। प्रबल इच्छा-शक्ति द्वारा वह अपने मन को उच्चतर वस्तुओं पर दृढ़ रखता है और इस प्रकार शान्ति प्राप्त करता है।
यदि हम शान्ति को प्राप्त न कर सकें तो हम पशुओं से किस प्रकार बढ़ कर हैं? वह (ज्ञानी) सब कुछ दूसरों के लिए, प्रभु के लिए करता है; वह सभी कर्मफलों का त्याग करता है और इहलौकिक तथा पारलौकिक फलों की आशा नहीं करता। हमारी आत्मा से अधिक विश्व हमें क्या दे सकता है? उस आत्मा को प्राप्त करने से हम 'सब' प्राप्त कर लेते हैं।
वेदों की शिक्षा है कि आत्मा या सत्य एक अविभक्त सत् वस्तु है। वह मन, विचार या चेतना, जैसा कि हम उसे जानते हैं, इनसे भी परे है। सभी वस्तुएँ उसी से हैं। वह वही है, जिसके माध्यम से (अथवा जिसके कारण से) हम देखते, सुनते, अनुभव करते और सोचते हैं। विश्व का लक्ष्य ॐ या एकमात्र सत्ता से एकत्व प्राप्त करना है। ज्ञानी को सभी रूपों से मुक्त होना पड़ता है; न तो वह हिन्दू है, न बौद्ध, न ईसाई, अपितु वह तीनों ही है।
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