धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
उसके बाद स्वयं मन है। वह एक स्थिर जलाशय के समान है, जो कि आघात किये जाने पर, जैसे पत्थर द्वारा, स्पन्दित हो उठता है। स्पन्दन एकत्र होकर पत्थर पर प्रतिक्रिया करते हैं, जलाशय भर में वे फैलते हुए अनुभव किये जा सकते हैं। मन एक झील के समान है, उसमें निरन्तर स्पंदन होते रहते हैं, जो उस पर एक छाप छोड़ जाते हैं। और अहं या व्यक्तिगत स्व या मैं का विचार इन स्पन्दनों का परिणाम होता है। इसलिए यह 'मैं' शक्ति का अत्यन्त द्रुत संप्रेषण मात्र है, वह स्वयं सत्य नहीं है। मस्तिष्क का निर्मायक पदार्थ एक अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक यन्त्र है, जो प्राण धारण करने में प्रयुक्त होता है। मनुष्य के मरने पर शरीर मर जाता है, किन्तु अन्य सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद मन का थोड़ा भाग, उसका बीज बच जाता है। यही नये शरीर का बीज होता है, जिसे सन्त पाल ने 'आध्यात्मिक शरीर' कहा है। मन की भौतिकता का यह सिद्धान्त सभी आधुनिक सिद्धान्तों से मेल खाता है। जड़ व्यक्ति में बुद्धि कम होती है, क्योंकि उसका मस्तिष्क पदार्थ-आहत होता है। बुद्धि भौतिक पदार्थ में नहीं हो सकती और न वह पदार्थ के किसी संघात द्वारा उत्पन्न की जा सकती है। तब बुद्धि कहाँ होती है? वह भौतिक पदार्थ के पीछे होती है, वह जीव है, भौतिक यन्त्र के माध्यम से कार्य करनेवाली आत्मा है। बिना पदार्थ के शक्ति का संप्रेषण सम्भव नहीं है, और चूंकि जीव एकाकी यात्रा नहीं कर सकता, मृत्यु के द्वारा और सब कुछ ध्वस्त हो जाने पर मन का एक अंश संप्रेषण के माध्यम के रूप में बच जाता है।
प्रत्यक्ष कैसे होता है? सामने की दीवार एक प्रभाव-चित्र मुझे भेजती है, किन्तु जब तक कि मेरा मन प्रतिक्रिया नहीं करता, मैं दीवार नहीं देखता। अर्थात् मन केवल दृष्टि मात्र से दीवार को नहीं जान सकता। जो प्रतिक्रिया मनुष्य को दीवार के प्रत्यक्ष की क्षमता देती है, वह एक बौद्धिक प्रक्रिया है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व हमारी आँखों और मन (प्रत्यक्षीकरण की आन्तरिक शक्ति) द्वारा देखा जाता है; वह हमारी अपनी व्यक्तिगत वृत्तियों द्वारा निश्चित रूप से रँग जाता है। वास्तविक दीवार या वास्तविक विश्व, मस्तिष्क के बाहर होता है और अज्ञात तथा अज्ञेय होता है। इस विश्व को 'क' कहिये और हमारा कहना है कि दृश्य जगत् होगा 'क'+ मन।
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