धर्म एवं दर्शन >> ज्ञानयोग ज्ञानयोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
वेदान्त दर्शन की यह आधारशिला है, उसका आदि और अन्त है। ''केवल ब्रह्म ही सत्य है, शेष सब मिथ्या है और मैं ब्रह्म हूँ।'' जब तक हम उसे अपने अस्तित्व का एक अंश न बना लें, तब तक अपने से केवल यही कहते रहने से हम समस्त द्वैत भाव से, शुभ तथा अशुभ से, सुख और दुःख से, कष्ट और आनन्द दोनों ही से, ऊपर उठ सकते हैं। और अपने को शाश्वत, अपरिवर्तनशील, असीम, 'एक अद्वितीय' ब्रह्म के रूप में जान सकते हैं।
ज्ञानयोगी को अवश्य ही उतना प्रखर अवश्य होना चाहिए जितना कि सकीर्णतम सम्प्रदायवादी, किन्तु उतना ही विस्तीर्ण भी जितना कि आकाश। उसे अपने पर पूर्ण नियन्त्रण रखना चाहिए, बौद्ध या ईसाई होने का सामर्थ्य रखना चाहिए तथा अपने को इन विभिन्न विचारों में सचेतन रूप से विभक्त करते हुए चिरन्तन सामंजस्य में दृढ़ रहना चाहिए। सतत अभ्यास ही हमें ऐसा नियन्त्रण प्राप्त करने का सामर्थ्य दे सकता है। सभी विविधताएँ उसी एक में हैं, किन्तु हमें यह सीखना चाहिए कि जो कुछ हम करें उससे अपना तादात्म्य न कर दें, और जो अपने हाथ में हो, उसके अतिरिक्त, अन्य कुछ न देखें, न सुनें और न उसके विषय में बात करें। हमें अपने पूरे जी-जान से जुट जाना और प्रखर बनना चाहिए। दिन-रात अपने से यही कहते रहो - सोऽहं, सोऽहं।
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