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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586

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मनुष्य यदि जीवन के लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को


सचमुच, किसी का अस्तित्व नहीं है - न संकल्प है, न विकल्प। वे प्रभु ही सब कुछ हैं। ईश्वर - चित्-शक्ति – जगदम्बा लीला कर रही हैं और हम सब गुड़ियों जैसे हैं, उनकी लीला में सहायक मात्र हैं। यहाँ वे किसी को कभी भिखारी के रूप में सजाती हैं, औऱ कभी राजा के रूप में तीसरे क्षण उसे साधू का रूप दे देती हैं और कुछ ही देर बाद शैतान की वेश-भूषा पहना देती हैं। हम जगन्माता को उनके खेल में सहायता देने के लिए भिन्न-भिन्न वेश धारण कर रहे हैं।

जब तक बच्चा खेलता रहता है, तब तक माँ के बुलाने पर भी नहीं जाता। पर जब उसका खेलना समाप्त हो जाता है तब वह सीधे माँ के पास दौड़ जाता है, फिर ‘ना’ नहीं कहता। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं। और तब हम जगन्माता की ओर दौड़ जाना चाहते है। तब, हमारी आँखों में यहाँ के अपने कार्यकलापों का कोई मूल्य नहीं रह जाता; नर-नारी-बच्चे, धन-नाम-यश, जीवन के हर्ष औऱ महत्त्व, दण्ड औऱ पुरस्कार - इनका कुछ भी अस्तित्व नहीं रह जाता, औऱ समस्त जीवन उड़ते दृश्य सा जान पडता है। हम केवल देखते हैं अनन्त ताल-लहरी को किसी अज्ञात दिशा में बहते हुए - बिना किसी छोर के, बिना किसी उद्देश्य के। हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि  हमारा खेल हो चुका।

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