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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586

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मनुष्य यदि जीवन के लक्ष्य अर्थात् पूर्णत्व को


यहाँ पहले विचार विश्लेष्ट होकर आकाशतत्त्व में मिल जाता है और फिर उसी का वहाँ संश्लेषण हो जाता है- इस तरह का चक्राकार कार्यक्रम चलता है। परन्तु विचार-संक्रमण में इस तरह की कोई चक्राकार क्रिया नहीं होती, इसमें मेरा विचार सीधा सीधा तुम्हारे पास पहुँच जाता है।

इससे स्पष्ट है कि मन एक अखण्ड वस्तु है, जैसा कि योगी कहते हैं। मन विश्वव्यापी है। तुम्हारा मन, मेरा मन, ये सब विभिन्न मन उस समष्टि-मन के अंश मात्र हैं, मानो समुद्र पर उठनेवाली छोटी छोटी लहरें; और इस अखण्डता के कारण ही हम अपने विचारों को एकदम सीधे, बिना किसी माध्यम के आपस में संक्रमित कर सकते हैं।

हमारे आसपास दुनिया में क्या हो रहा है, यह तो तुम देख ही रहे हो।

अपना प्रभाव चलाना यही दुनिया है। हमारी शक्ति का कुछ अंश तो हमारे शरीर-धारण के उपयोग में आता है, और शेष प्रत्येक अंश दूसरों पर अपना प्रभाव डालने में रात दिन व्यय होता रहता है। हमारे शरीर, हमारे गुण, हमारी बुद्धि  तथा हमारा आत्मिक बल- लगातार दूसरों पर प्रभाव डालते आ रहे हैं। इसी प्रकार, उलटे रूप में, दूसरों का प्रभाव हम पर पड़ता चला आ रहा है। हमारे आसपास यही चल रहा है।

एक प्रत्यक्ष उदाहरण लो। एक मनुष्य तुम्हारे पास आता है, वह खूब पढ़ा लिखा है, इसकी भाषा भी सुन्दर है, वह तुमसे एक घण्टा बात करता है, फिर भी वह अपना असर नहीं छोड़ जाता।

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